Category: Movie Review
संक्षिप्त_समीक्षा : Mickey17...
Posted by Arif Aziz | May 10, 2025 | Education and Empowerment, Movie Review, Reviews | 0 |
समीक्षा: होटल रवांडा और मीडिया की भूमिका...
Posted by Abdullah Mansoor | May 2, 2025 | Movie Review | 0 |
डोंट डाई: द मैन हू वांट्स टू लिव फॉरएवर...
Posted by Abdullah Mansoor | Jan 14, 2025 | Culture and Heritage, Movie Review | 0 |
प्रेम की आड़ में छिपी घरेलू हिंसा: ‘डार्लिंग...
Posted by Abdullah Mansoor | Dec 14, 2024 | Movie Review | 0 |
A Feminist Critique of Zakir Naik’s Views on...
Posted by Abdullah Mansoor | Oct 22, 2024 | Movie Review | 0 |
सुन री सखी, मेरी प्यारी सखी!
by Arif Aziz | May 13, 2025 | Culture and Heritage, Education and Empowerment, Gender Equality and Women's Rights, Movie Review | 0 |
लेखिका: पायल …तभी सखी को एहसास होता है कि लड़कियाँ लड़कों से कम थोड़े न हैं। अतः सखी ने अपनी...
Read Moreसंक्षिप्त_समीक्षा : Mickey17
by Arif Aziz | May 10, 2025 | Education and Empowerment, Movie Review, Reviews | 0 |
बोंग जून-हो, जिन्होंने ‘पैरासाइट’ जैसी ऑस्कर विजेता फिल्म बनाई है, अपनी नई...
Read Moreसमीक्षा: होटल रवांडा और मीडिया की भूमिका
by Abdullah Mansoor | May 2, 2025 | Movie Review | 0 |
“अगर दुनिया देखती है और फिर भी कुछ नहीं करती, तो हम सब मारे जाएंगे।” ‘Hotel...
Read Moreबंदिश बैंडिट्स का माही – एक समाज की आवाज़ या आवाज़ का बाज़ारीकरण?
by Abdullah Mansoor | Feb 2, 2025 | Movie Review | 0 |
एंटी-कास्ट सिनेमा में बहुजन समाज का अनुभव, उनकी जीवन-शैली, संस्कृति केंद्र बिंदु पर होता है जिसे उनकी भाषा, भोजन, भाव-भंगिमा से चित्रित किया जाता है। अंबेडकरवादी विचारधारा को बोलकर नहीं बल्कि उनके कार्यों, निर्णयों, अन्याय के प्रति उनकी सोच में दिखाया जाता है। अंबेडकर, बुद्ध, कबीर, इलयाराजा का संगीत, सावित्री-ज्योतिबा फुले इत्यादि के प्रतीक चिन्ह आपको एंटी-कास्ट पात्र के आस-पास देखने को मिलते हैं जो इंगित करते हैं कि वो समाज की पहचान, इतिहास और संघर्षों के प्रति जागरूक है।
Read Moreडोंट डाई: द मैन हू वांट्स टू लिव फॉरएवर
by Abdullah Mansoor | Jan 14, 2025 | Culture and Heritage, Movie Review | 0 |
नेटफ्लिक्स की डॉक्यूमेंट्री “डोंट डाई: द मैन हू वांट्स टू लिव फॉरएवर” देखने के बाद मुझे एक अजीब सा अनुभव हुआ। यह फिल्म ब्रायन जॉनसन नाम के एक अमीर टेक उद्यमी की कहानी है, जो बुढ़ापे और मौत से लड़ने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा रहा है।
जॉनसन साहब की जिंदगी देखकर मुझे लगा कि वो किसी साइंस फिक्शन फिल्म के किरदार हैं। हर दिन वो सैकड़ों गोलियां खाते हैं, अजीब-अजीब मशीनों में घंटों बिताते हैं, और अपने बेटे का प्लाज़्मा भी ले लेते हैं। लेकिन फिर मैंने सोचा कि शायद जॉनसन साहब कुछ ऐसा कर रहे हैं जो हम सब चाहते हैं – लंबी और स्वस्थ जिंदगी जीना। बस फर्क इतना है कि उनके पास करोड़ों रुपये हैं जो वो इस पर खर्च कर सकते हैं।
फिल्म में दिखाया गया कि जॉनसन साहब पहले मोटे और उदास थे। लेकिन अब वो फिट और खुश नजर आते हैं। शायद उनकी कोशिशों का कुछ फायदा हुआ है।
मगर मुझे लगता है कि वो कुछ जरूरी चीजें भूल गए हैं। जैसे परिवार और दोस्तों के साथ वक्त बिताना, जिंदगी का मजा लेना। फिल्म के आखिर में जब उनका बेटा कॉलेज जाता है तो वो रो पड़ते हैं। तब मुझे लगा कि शायद उन्हें अहसास हुआ कि सिर्फ लंबी उम्र काफी नहीं है।
कुल मिलाकर ये फिल्म दिलचस्प थी। इसने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि हम अपनी सेहत का ख्याल कैसे रखें, लेकिन साथ ही जिंदगी का लुत्फ भी उठाएं। मुझे लगता है कि हमें जॉनसन साहब जैसा पागलपन नहीं करना चाहिए, लेकिन उनसे कुछ सीख जरूर ले सकते हैं – जैसे अच्छी नींद लेना, सही खाना खाना और एक्सरसाइज करना।
प्रेम की आड़ में छिपी घरेलू हिंसा: ‘डार्लिंग्स’ से ‘इट एंड्स विद अस’ तक का सफर
by Abdullah Mansoor | Dec 14, 2024 | Movie Review | 0 |
भारतीय समाज में, लड़कियों को अक्सर किसी न किसी पुरुष पर निर्भर रहने और घरेलू हिंसा को सहन करने की शिक्षा दी जाती है.भारतीय फिल्मों में घरेलू हिंसा का चित्रण अक्सर एकतरफा होता है, जहां शोषक पुरुष को मुख्य रूप से नकारात्मक किरदार के रूप में दिखाया जाता है.इसके विपरीत, ‘इट एंड्स विद अस’ पुरुष पात्र के प्रति अधिक संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाती है, उसकी अच्छाइयों और कमजोरियों दोनों को दिखाती है.
Read MoreA Feminist Critique of Zakir Naik’s Views on Women Through an Islamic Lens
by Abdullah Mansoor | Oct 22, 2024 | Movie Review | 0 |
Naik’s visit was further marred by additional controversies, including his refusal to present awards to orphaned girls and his demand for VIP treatment regarding luggage allowance. The incident has led to debates about religious interpretation, women’s rights, and the appropriateness of hosting controversial figures as state guests in Pakistan.This controversy highlights the ongoing tensions between conservative religious views and more progressive attitudes towards women’s rights and social issues in the country. It also underscores the challenges faced by Muslim women, particularly in India, where they often struggle with issues like conservative societal norms, limited access to education, and economic disadvantages.This article provides a feminist critique of Zakir Naik’s controversial views on women from an Islamic perspective.The article concludes by calling for constructive dialogue within the Muslim community to challenge regressive interpretations and promote a more inclusive understanding of Islam that upholds women’s rights in accordance with Quranic principles
Read Moreआडूजीविथम: द गोट लाइफ
by Abdullah Mansoor | Oct 12, 2024 | Movie Review | 0 |
‘आडूजीविथम’ एक मलयालम फिल्म है, जिसका निर्देशन ब्लेस्सी ने किया है। यह फिल्म 2024 में रिलीज़ हुई और बेन्यामिन के उपन्यास पर आधारित है। मुख्य भूमिका में पृथ्वीराज सुकुमारन हैं, जो नजीब नामक एक गरीब भारतीय मजदूर का किरदार निभा रहे हैं। अन्य कलाकारों में अमाला पॉल और विनीत श्रीनिवासन भी शामिल हैं। फिल्म का निर्माण अरुण कुमार के केवी एंटरप्राइजेज के तहत हुआ है, और संगीत ए.आर. रहमान ने दिया है।
Read Moreद पियानिस्ट: नाज़ी आतंक के साये में जीवित रहने की कहानी
by Abdullah Mansoor | Jul 31, 2024 | Movie Review | 0 |
द पियानिस्ट” केवल एक ऐतिहासिक फिल्म नहीं है। यह एक चेतावनी है कि कैसे नफरत और पूर्वाग्रह पूरे समाज को बर्बाद कर सकते हैं। फिल्म हमें याद दिलाती है कि मानवता की रक्षा के लिए हमें सतर्क रहना होगा और किसी भी प्रकार के भेदभाव का विरोध करना होगा। इस संपादित समीक्षा में मैंने नाज़ी अत्याचारों और होलोकॉस्ट की भयावहता पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है। मैंने कुछ विवरणों को और अधिक स्पष्ट किया है और भावनात्मक प्रभाव को बढ़ाने के लिए कुछ दृश्यों का विस्तृत वर्णन जोड़ा है। यह संशोधित समीक्षा फिल्म के मुख्य संदेश को और अधिक प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है।
Read Moreफिल्म जो जो रैबिट: नाज़ी प्रोपेगेंडा की ताकत और बाल मनोविज्ञान
by Abdullah Mansoor | Jul 17, 2024 | Movie Review, Reviews | 0 |
जोजो रैबिट (Roman Griffin Davis) 10 साल का एक लड़का है। यह तानाशाह के शासनकाल (Totalitarian regime) में पैदा हुआ है। इसलिए जोजो के लिए स्वतंत्रता, समानता, अधिकार जैसे शब्द कोई मायने नहीं रखते क्योंकि उसने कभी इन शब्दों का अनुभव ही नहीं किया है। जोजो सरकार द्वारा स्थापित हर झूठ को सत्य मानता है। सरकार न सिर्फ डंडे के ज़ोर से अपनी बात मनवाती है बल्कि वह व्यक्तियों के विचारों के परिवर्तन से भी अपने आदेशों का पालन करना सिखाती है। आदेशों को मानने का प्रशिक्षण स्कूलों से दिया जाता है। स्कूल किसी भी विचारधारा को फैलाने के सबसे बड़े माध्यम हैं। हिटलर ने स्कूल के पाठ्यक्रम को अपनी विचारधारा के अनुरूप बदलवा दिया था। वह बच्चों के सैन्य प्रशिक्षण के पक्ष में था, इसके लिए वह बच्चों और युवाओं का कैंप लगवाता था। जर्मन सेना की किसी भी कार्रवाई पर सवाल करना देशद्रोह था। सेना का महिमामंडन किया जाता था ताकि जर्मन सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचार किसी को दिखाई न दे। बच्चों के अंदर अंधराष्ट्रवाद को फैलाया जाता था। इसी तरह जोजो भी खुद को हिटलर का सबसे वफादार सिपाही बनाना चाहता है
Read Moreपर्वत और समुद्र के बीच:घुमक्कड़ी की आज़ादी
by Abdullah Mansoor | Jun 7, 2024 | Book Review, Movie Review | 0 |
हम भी खुद को अपने शरीर की आज़ादी से जुड़ी पहचान तक सीमित कर लेते हैं। शरीर को सजाना, सँवारना, कपड़े पहनाना, उतारना मात्र ही आज़ादी है, तो हम कहीं न कहीं अपने शरीर का ऑब्जेक्टिफ़िकेशन करने में खुद ही लगे हुए हैं, और यही तो पुरुष समाज चाहता है। अगर हम सेक्स को लेकर खुलेपन पर बात करते हैं, तो भी हम नारी सशक्तिकरण की कोई लड़ाई नहीं जीत रहे जब तक कि हम लड़कियों को भावनात्मक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर सुरक्षित नहीं कर लेते। सेक्स करने की आज़ादी से पहले अगर आप अपने पार्टनर का कुल-गोत्र ढूँढ रहे हैं, तो शायद आप पहले ही मानसिक ग़ुलाम और (जाने या अनजाने) जातिवादी हैं। सेक्स और शरीर से जुड़ी आज़ादी ज़रूरी है क्योंकि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के अंतर्गत हम औरतों के शरीर को एक इंसान के स्तर पर न देखकर पुरुष की संपत्ति के तौर पर देखते हैं। औरत के शरीर पर जाति व परिवार की इज्जत को थोप दिया है और इस तरह औरत की पूरी पहचान उसके शरीर पर ही केंद्रित होकर रह जाती है। लेकिन क्या समस्या-स्थल से पलायन कर जाना आज़ादी है? क्या कहीं दूर किसी आज़ाद जगह पर बस जाना आज़ादी है? उनका क्या जो दूर नहीं जाना चाहते, क्या आज़ादी उनकी है ही नहीं?
Read Moreलापता हमारी कहानियाँ
by Abdullah Mansoor | May 30, 2024 | Movie Review, Reviews | 0 |
किरण राव द्वारा निर्देशित “लापता लेडीज़” महिला सशक्तिकरण और ग्रामीण भारत में महिलाओं द्वारा सामना किए जाने वाले असंख्य सामाजिक मुद्दों के विषयों पर आधारित है। फिल्म की कहानी दो युवा दुल्हनों के इर्द-गिर्द घूमती है जो ट्रेन यात्रा के दौरान रहस्यमय तरीके से गायब हो जाती हैं, जिससे घटनाओं की एक श्रृंखला शुरू होती है जो महिलाओं के दैनिक जीवन में आने वाली जटिलताओं और चुनौतियों को उजागर करती है। लापता दुल्हनों की खोज के माध्यम से, कहानी ग्रामीण समाज की जटिल गतिशीलता को उजागर करती है, महिलाओं की लचीलापन और ताकत को उजागर करती है क्योंकि वे विभिन्न सामाजिक दबावों और बाधाओं से गुजरती हैं। यह मार्मिक अन्वेषण पारंपरिक रूप से पितृसत्तात्मक सेटिंग्स में लैंगिक समानता और महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए चल रहे संघर्ष पर प्रकाश डालता है।
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