Category: Movie Review

A Feminist Critique of Zakir Naik’s Views on Women Through an Islamic Lens

Naik’s visit was further marred by additional controversies, including his refusal to present awards to orphaned girls and his demand for VIP treatment regarding luggage allowance. The incident has led to debates about religious interpretation, women’s rights, and the appropriateness of hosting controversial figures as state guests in Pakistan.This controversy highlights the ongoing tensions between conservative religious views and more progressive attitudes towards women’s rights and social issues in the country. It also underscores the challenges faced by Muslim women, particularly in India, where they often struggle with issues like conservative societal norms, limited access to education, and economic disadvantages.This article provides a feminist critique of Zakir Naik’s controversial views on women from an Islamic perspective.The article concludes by calling for constructive dialogue within the Muslim community to challenge regressive interpretations and promote a more inclusive understanding of Islam that upholds women’s rights in accordance with Quranic principles

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आडूजीविथम: द गोट लाइफ

‘आडूजीविथम’ एक मलयालम फिल्म है, जिसका निर्देशन ब्लेस्सी ने किया है। यह फिल्म 2024 में रिलीज़ हुई और बेन्यामिन के उपन्यास पर आधारित है। मुख्य भूमिका में पृथ्वीराज सुकुमारन हैं, जो नजीब नामक एक गरीब भारतीय मजदूर का किरदार निभा रहे हैं। अन्य कलाकारों में अमाला पॉल और विनीत श्रीनिवासन भी शामिल हैं। फिल्म का निर्माण अरुण कुमार के केवी एंटरप्राइजेज के तहत हुआ है, और संगीत ए.आर. रहमान ने दिया है।

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द पियानिस्ट: नाज़ी आतंक के साये में जीवित रहने की कहानी

द पियानिस्ट” केवल एक ऐतिहासिक फिल्म नहीं है। यह एक चेतावनी है कि कैसे नफरत और पूर्वाग्रह पूरे समाज को बर्बाद कर सकते हैं। फिल्म हमें याद दिलाती है कि मानवता की रक्षा के लिए हमें सतर्क रहना होगा और किसी भी प्रकार के भेदभाव का विरोध करना होगा। इस संपादित समीक्षा में मैंने नाज़ी अत्याचारों और होलोकॉस्ट की भयावहता पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है। मैंने कुछ विवरणों को और अधिक स्पष्ट किया है और भावनात्मक प्रभाव को बढ़ाने के लिए कुछ दृश्यों का विस्तृत वर्णन जोड़ा है। यह संशोधित समीक्षा फिल्म के मुख्य संदेश को और अधिक प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है।

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फिल्म जो जो रैबिट: नाज़ी प्रोपेगेंडा की ताकत और बाल मनोविज्ञान

जोजो रैबिट (Roman Griffin Davis) 10 साल का एक लड़का है। यह तानाशाह के शासनकाल (Totalitarian regime) में पैदा हुआ है। इसलिए जोजो के लिए स्वतंत्रता, समानता, अधिकार जैसे शब्द कोई मायने नहीं रखते क्योंकि उसने कभी इन शब्दों का अनुभव ही नहीं किया है। जोजो सरकार द्वारा स्थापित हर झूठ को सत्य मानता है। सरकार न सिर्फ डंडे के ज़ोर से अपनी बात मनवाती है बल्कि वह व्यक्तियों के विचारों के परिवर्तन से भी अपने आदेशों का पालन करना सिखाती है। आदेशों को मानने का प्रशिक्षण स्कूलों से दिया जाता है। स्कूल किसी भी विचारधारा को फैलाने के सबसे बड़े माध्यम हैं। हिटलर ने स्कूल के पाठ्यक्रम को अपनी विचारधारा के अनुरूप बदलवा दिया था। वह बच्चों के सैन्य प्रशिक्षण के पक्ष में था, इसके लिए वह बच्चों और युवाओं का कैंप लगवाता था। जर्मन सेना की किसी भी कार्रवाई पर सवाल करना देशद्रोह था। सेना का महिमामंडन किया जाता था ताकि जर्मन सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचार किसी को दिखाई न दे। बच्चों के अंदर अंधराष्ट्रवाद को फैलाया जाता था। इसी तरह जोजो भी खुद को हिटलर का सबसे वफादार सिपाही बनाना चाहता है

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पर्वत और समुद्र के बीच:घुमक्कड़ी की आज़ादी

हम भी खुद को अपने शरीर की आज़ादी से जुड़ी पहचान तक सीमित कर लेते हैं। शरीर को सजाना, सँवारना, कपड़े पहनाना, उतारना मात्र ही आज़ादी है, तो हम कहीं न कहीं अपने शरीर का ऑब्जेक्टिफ़िकेशन करने में खुद ही लगे हुए हैं, और यही तो पुरुष समाज चाहता है। अगर हम सेक्स को लेकर खुलेपन पर बात करते हैं, तो भी हम नारी सशक्तिकरण की कोई लड़ाई नहीं जीत रहे जब तक कि हम लड़कियों को भावनात्मक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर सुरक्षित नहीं कर लेते। सेक्स करने की आज़ादी से पहले अगर आप अपने पार्टनर का कुल-गोत्र ढूँढ रहे हैं, तो शायद आप पहले ही मानसिक ग़ुलाम और (जाने या अनजाने) जातिवादी हैं। सेक्स और शरीर से जुड़ी आज़ादी ज़रूरी है क्योंकि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के अंतर्गत हम औरतों के शरीर को एक इंसान के स्तर पर न देखकर पुरुष की संपत्ति के तौर पर देखते हैं। औरत के शरीर पर जाति व परिवार की इज्जत को थोप दिया है और इस तरह औरत की पूरी पहचान उसके शरीर पर ही केंद्रित होकर रह जाती है। लेकिन क्या समस्या-स्थल से पलायन कर जाना आज़ादी है? क्या कहीं दूर किसी आज़ाद जगह पर बस जाना आज़ादी है? उनका क्या जो दूर नहीं जाना चाहते, क्या आज़ादी उनकी है ही नहीं?

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लापता हमारी कहानियाँ

किरण राव द्वारा निर्देशित “लापता लेडीज़” महिला सशक्तिकरण और ग्रामीण भारत में महिलाओं द्वारा सामना किए जाने वाले असंख्य सामाजिक मुद्दों के विषयों पर आधारित है। फिल्म की कहानी दो युवा दुल्हनों के इर्द-गिर्द घूमती है जो ट्रेन यात्रा के दौरान रहस्यमय तरीके से गायब हो जाती हैं, जिससे घटनाओं की एक श्रृंखला शुरू होती है जो महिलाओं के दैनिक जीवन में आने वाली जटिलताओं और चुनौतियों को उजागर करती है। लापता दुल्हनों की खोज के माध्यम से, कहानी ग्रामीण समाज की जटिल गतिशीलता को उजागर करती है, महिलाओं की लचीलापन और ताकत को उजागर करती है क्योंकि वे विभिन्न सामाजिक दबावों और बाधाओं से गुजरती हैं। यह मार्मिक अन्वेषण पारंपरिक रूप से पितृसत्तात्मक सेटिंग्स में लैंगिक समानता और महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए चल रहे संघर्ष पर प्रकाश डालता है।

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डॉक्टर अंबेडकर नहीं बल्कि कुछ बहुजन बुद्धिजीवी दलित मुस्लिमों के आरक्षण के खिलाफ हैं

यदि संविधान कहता है कि अगर संविधान के हिसाब से सिर्फ धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता, तो सिर्फ धर्म के आधार पर आरक्षण से बाहर भी नहीं किया जा सकता। लेकिन 1950 का राष्ट्रपति आदेश बिल्कुल यही करता है, जिसमें दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को केवल उनके धर्म के कारण एससी श्रेणी से बाहर रखा गया है। यह उनके मूल अधिकारों, विशेष रूप से अनुच्छेद 14 (समानता), बल्कि अनुच्छेद 15 (कोई भेदभाव नहीं), 16 (नौकरियों में कोई भेदभाव नहीं), और 25 (विवेक की स्वतंत्रता) के भी खिलाफ है।

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न्यूटन:- लोकतंत्र की ग्रैविटी बताती फिल्म

“न्यूटन” एक फिल्म है जो एक सरकारी अधिकारी की कहानी को बताती है, जो छत्तीसगढ़ के जंगल में एक दूरस्थ मतदान केंद्र में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का संकल्प रखता है। फिल्म की शुरुआत एक राजनेता के शर्मनाक प्रचार से होती है, जो लोगों के कंधों से ऊपर उठकर एक वाहन पर खड़ा होता है। न्यूटन के घर में टेलीविजन स्क्रीन में माओवादियों द्वारा की गई इस हिंसा की घटना की खबर से गूंज रही है। फिल्म में न्यूटन के नाम के बारे में भी बात की जाती है, जो उनकी पहचान के संदर्भ में महत्वपूर्ण होता है। इस फिल्म में दलित और प्रजाति के मुद्दे को सामने लाया गया है, जो समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रकट करता है।

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पसमांदा आंदोलन का संक्षिप्त इतिहास

बहुत सालों बाद बाबा कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए  मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी (1890-1953) ने बाजाब्ता सांगठनिक रूप में एकअंतरराष्ट्रीय संगठन (जमीयतुल मोमिनीन/ मोमिन कांफ्रेंस) की स्थापना किया जो भारत के अलावा नेपाल, श्रीलंका और वर्मा तक फैला हुआ था।

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पसमांदा आंदोलन के जनक आसिम बिहारी

आसिम बिहारी का जन्म शिक्षा और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय से लगे खासगंज, बिहार शरीफ के एक देशभक्त परिवार में हुआ था. उनके दादा मौलाना अब्दुर्रहमान ने 1857 की क्रांति के झंडे को बुलंद किया था. आसिम बिहारी का असल नाम अली हुसैन था.
आसिम बिहारी के संघर्ष और सक्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वो पैदा बिहार के नालंदा में हुए, आंदोलन की शुरुआत कोलकाता से की और उनकी मृत्यु उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुई.

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जोजो रैबिट: अंधभक्तों का आईना

जोजो रैबिट फ़िल्म के साथ एक बहस भी चल रही है कि क्या त्रासदी पर कॉमेडी बनाई जा सकती है। मेरा जवाब है आपको किसी भी रचना को इस तरह देखना होगा कि उसका End result क्या है! क्या जोजो रैबिट हम को सिर्फ़ हंसाती है या वह हंसाते हुए हम को विषय की गम्भीरता से परिचित भी करवाती है! फ़िल्म हमें 10 साल के बच्चे के ज़रिए हमें नाज़ी विचारधारा को समझने और समझाने में मदद करती है। हम यह समझ पाने में कामयाब होते हैं कि कैसे नफ़रत भरा प्रोपेगैंडा जोजो जैसे मासूम दिल को भी दूषित कर सकता है। फ़िल्म हमें समझाती है कि जब हम किसी विचारधारा के वर्चस्व में होते हैं तब वह विचारधारा हमारे लिए हमारा ‘विश्वास तंत्र’ बन जाता है। हम कुछ भी ऐसे न देखना चाहते हैं और न सुन्ना जो हमें अपने विश्वास तंत्र से अलग नज़र आता है। इसे ही ‘पोस्ट-ट्रुथ’ कहा जाता है। अंधभक्त तर्कों और तथ्यों को इसलिए नकार देते हैं क्योंकि वह तर्क और तथ्य उनके विश्वास, उनकी भवनाओं से मेल नही खाते। हमें ऐसे लोगों के पागलपन को कम करके नहीं आंकना चाहिए, जिन समझदारों ने हिटलर के उदय को मामूली घटना समझा था। उन लोगों ने इतिहास की एक बड़ी त्रासदी को अपने सामने होते देखा। जोजो रैबिट George Carlin के शब्दों में हमें सबक़ देती है कि Never underestimate the power of stupid people in large groups. [ मूर्खो-अंधभक्तों की बड़ी संख्या वाले समूहों की शक्ति को कम करके नहीं आंकना चाहिए।]

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