“The Pianist” (2002) रोमन पोलांस्की की होलोकॉस्ट पर आधारित बेहतरीन फिल्मों में से एक है। यह फिल्म पोलिश पियानिस्ट व्लादिस्लाव स्पिलमैन की सच्ची घटना पर आधारित है। निर्देशक पोलांस्की खुद एक होलोकॉस्ट सर्वाइवर थे, जो फिल्म की बारीकियों में स्पष्ट रूप से झलकता है।

पोलांस्की ने इस फिल्म को एक सर्वाइवल ड्रामा के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसमें नायक स्पिलमैन न योद्धा है, न ही कोई एक्शन हीरो। पूरी फिल्म में उसका सर्वोत्तम प्रयास खुद को जीवित रखना है। विषम परिस्थितियों में अपने नैतिक स्तर को गिराए बिना खुद को बचाना भी एक प्रकार का नायकत्व है।

आखिर जीवित रहना क्यों जरूरी है? यह विचार हमें फिल्म “जो जो रैबिट” में रोज़ी की नसीहत की याद दिलाता है, जब वह यहूदी लड़की एल्सा से कहती है, “तुम्हें जीना होगा, वह नहीं चाहते तुम जिंदा रहो, पर तुम्हारा जिंदा रहना उनकी हार होगी। अगर तुमने जिंदा रहने की तमन्ना छोड़ दी, तो वह जीत जाएंगे।

आज जब हम रफाह कैंप, कंसंट्रेशन कैंप, अलग से पहचान पत्र, आर्थिक बहिष्कार, नागरिकता संशोधन, भीड़ द्वारा हत्या, नस्लीय शुद्धता, अंधराष्ट्रवाद, और युद्ध के महिमामंडन जैसे शब्द सुनते हैं, तो हमें अपने आसपास हिटलर नजर आने लगता है। हिटलर होने का अर्थ क्या है? नफरत किसी समुदाय या देश के साथ क्या कर सकती है, यह समझने के लिए हमें बार-बार होलोकॉस्ट और हिटलर के उदय का अध्ययन करना चाहिए।

दरअसल, यह फिल्म इसी अध्ययन का एक हिस्सा है। इस फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष यह है कि यह त्रासदी को मानवीय भावना देती है। यहूदियों का नरसंहार सिर्फ आंकड़े नहीं रह जाते, न ही इतिहास का कोई तथ्य, बल्कि आप हर जुल्म और हर हत्या को अनुभव करते हैं। पूरी फिल्म इस तरह बनाई गई है कि स्पिलमैन अपनी जान बचाते हुए एक जगह से दूसरी जगह भागता है और अपने कमरे की खिड़की से घटनाओं को घटते हुए देखता है। वह खिड़की इतिहास की खिड़की है, जिससे दर्शक भी घटनाओं को ठीक स्पिलमैन की ही तरह घटते हुए देखते हैं।

हीरो न तो औशविट्ज़ कैंप में जाता है और न ही वॉरसॉ विद्रोह में शामिल होता है। इस प्रकार, हम यातना और आतंक के क्रूरतम रूप को फिल्म में नहीं देखते। इसके बावजूद भी यह फिल्म आपको भावनात्मक रूप से झकझोर कर रख देती है।

[स्पॉइलर अलर्ट: आगे बढ़ने से पहले बता दूं कि इस समीक्षा में कई स्पॉइलर आएंगे। अगर आपने पहले फिल्म नहीं देखी है, तो पहले फिल्म देख लें, वैसे बिना फिल्म देखे भी यह समीक्षा आपको समझ में आ जाएगी।]

फिल्म की कहानी पोलैंड के एक रेडियो स्टेशन से शुरू होती है, जहां स्पिलमैन पियानो बजाने का काम करता है। उसी वक्त पोलैंड पर जर्मन जहाजों का हमला हो जाता है। स्पिलमैन शांति से अपना पियानो बजाता रहता है, जब तक कि स्टूडियो बम से तबाह नहीं हो जाता। चारों तरफ अफरा-तफरी है, पर स्पिलमैन अंदर से शांत है। उसका कलाकार मन युद्ध के इस क्षण में भी संगीत बनाता है, सपने बुनता है। उसका मन ऐसे वक्त में भी प्यार के लिए धड़कता है। स्पिलमैन का किरदार संगीत की तरह शुद्ध और मासूम है।

स्पिलमैन जब घर पहुंचता है, तो उसका परिवार पोलैंड छोड़ने की तैयारी में लगा रहता है। पर उसी वक्त रेडियो पर खबर चलती है कि ब्रिटेन पोलैंड पर हमले का विरोध करता है और जर्मनी के खिलाफ युद्ध का एलान करता है। स्पिलमैन का परिवार राहत की सांस लेता है और जश्न मनाता है कि चलो, अब उन्हें हिटलर से डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन उनकी यह खुशी क्षणिक होती है, क्योंकि जर्मनी पोलैंड पर कब्जा कर लेता है।

हिटलर ने होलोकॉस्ट सत्ता में आते ही शुरू नहीं किया था। कोई भी जनसंहार तुरंत शुरू नहीं होता, उसके लिए माहौल बनाया जाता है। हमने यह रवांडा और टुल्सा जनसंहार में भी देखा था। यहूदियों का जनसंहार भी तुरंत शुरू नहीं हुआ था। इस जनसंहार की भूमिका कई दशकों से तैयार हो रही थी। हिटलर ने बस उसे अमली जामा पहनाया था। हिटलर ने किस तरह होलोकॉस्ट को अंजाम दिया, इसे समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि होलोकॉस्ट शुरू होने से पहले बनाए गए तमाम एंटी-सेमेटिक कानूनों को देखा जाए। फिल्म दिखाती है कि कैसे नाज़ी शासन ने धीरे-धीरे यहूदियों के अधिकारों को छीना:सार्वजनिक स्थानों पर प्रतिबंध,यहूदी व्यवसायों का बहिष्कार,पहचान के लिए विशेष बैज पहनने की अनिवार्यता,सड़कों पर चलने पर प्रतिबंध. लल्लनटॉप और न्यूज़ क्लिक ने उन कानूनों का विस्तृत वर्णन दिया है, जो निम्नलिखित हैं:

1933: यहूदियों को सरकारी नौकरी जॉइन करने, मेडिसिन/फार्मेसी/कानून की पढ़ाई करने और मिलिट्री में भाग लेने से भी रोक दिया गया।

1935 में न्यूरेमबर्ग क़ानूनों के तहत यहूदियों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। नागरिकता क़ानूनों के अनुसार, जर्मनी का नागरिक वही माना जाएगा जिसकी रगों में जर्मन ख़ून हो। जर्मन नागरिकों और यहूदियों के बीच शादियों को अवैध घोषित कर दिया गया, विदेशों में भी यदि कोई ऐसी शादी करता है तो उसे भी अवैध क़रार दिया गया। जर्मन नागरिकों और यहूदियों के शारीरिक संबंध भी गैर-कानूनी घोषित कर दिए गए।

1935-36 के दौरान यहूदियों को पार्क, रेस्तरां, स्विमिंग पूल आदि से प्रतिबंधित कर दिया गया। उनके इलेक्ट्रिकल उपकरण (साइकिल, टाइपराइटर, और रिकॉर्ड) के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई। यहूदी विद्यार्थियों को जर्मनी के स्कूलों से निकाल दिया गया और इन स्कूलों में यहूदी शिक्षकों के पढ़ाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया।

1938 में यहूदियों के लिए खास तौर पर पहचान पत्र बनाए गए। उनके पासपोर्ट पर लाल रंग से ‘J’ (Jews) लिख दिया गया। उन्हें सिनेमा, थियेटर, प्रदर्शनियों आदि में भाग लेने से रोका गया। यहूदियों को मजबूर किया गया कि वे अपने नाम के साथ ‘सारा’ या ‘इस्राइल’ जोड़ें।

9-10 नवंबर 1938 की रात (जिसे Kristallnacht या Night of Broken Glass कहा जाता है) में पूरे देश में यहूदियों के खिलाफ हिंसा हुई। उनके घर, दुकानें, और प्रार्थना गृह (Synagogues) तोड़े और जला दिए गए।

1939 में यहूदियों को उनके घरों से निकाल दिया गया। उन्हें कहा गया कि वे अपने कीमती सामान जैसे सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात बिना किसी मुआवज़े के सरकार को सौंप दें। उनके लिए पूरे देश में कर्फ्यू लगा दिया गया और पालतू जानवर रखने पर पाबंदी लगा दी गई।

1940 में यहूदियों के टेलीफोन कनेक्शन काट दिए गए और युद्ध के समय मिलने वाला राशन और कपड़े भी रोक दिए गए।

1941 में यहूदियों को पब्लिक टेलीफोन का इस्तेमाल करने से मना कर दिया गया और देश छोड़ने पर पाबंदी लगा दी गई।

1942 में यहूदियों के कोट और गर्म कपड़े जब्त कर लिए गए। अंडे और दूध मिलना भी बंद हो गया।

इस सब के बाद की घटना को हम इतिहास में होलोकॉस्ट के रूप में पढ़ते हैं। शिक्षा का सही अर्थ यह है कि हम यह पढ़ें और समझें कि होलोकॉस्ट क्यों हुआ था। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था, “हिटलर ने जो भी किया वह क़ानून बनाकर किया। क़ानून व्यवस्था न्याय की स्थापना के लिए होते हैं और जब वे इसमें नाकाम रहते हैं तो खतरनाक ढंग से बने बांध की तरह हो जाते हैं, जो सामाजिक प्रगति के प्रवाह को थाम लेते हैं। इसलिए एक अन्यायपूर्ण क़ानून को न मानना एक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।”

हिटलर ने सिर्फ यहूदियों को ही नहीं मारा बल्कि उसने अपनी विचारधारा का इस्तेमाल अपनी जातीयता, राजनीतिक मान्यताओं, धर्म और यौन अभिविन्यास के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव करने और उन्हें सताने के लिए किया। लगभग 75,000 पोलिश नागरिक, 15,000 सोवियत युद्ध क़ैदी, समलैंगिक और राजनीतिक क़ैदी समेत अन्य लोगों को भी जर्मन सरकार ने ऑशविट्ज़ कैंप में मौत के घाट उतार दिया। इतने लोगों की हत्या हो गई और जर्मनी के आम लोग शांत रहे, ऐसा कैसे हुआ?

रविश कुमार लिखते हैं, “1938 के पहले के कई वर्षों में इस तरह की छिटपुट और संगीन घटनाएं हो रही थीं। इन घटनाओं की निंदा और समर्थन के बीच लोग मानसिक रूप से तैयार किए जा रहे थे जिन्हें प्रोपेगैंडा को साकार करने के लिए आगे चलकर हत्यारा बनना था। हिटलर के ये भक्त बन चुके थे, जिनके दिमाग़ में हिटलर ने हिंसा का ज़हर घोल दिया था।”

अब दुबारा फिल्म पर आते हैं। पोलैंड में सबसे ज्यादा यहूदी थे क्योंकि यहाँ प्रवासी क़ानून सबसे मजबूत थे। इसी वजह से यहूदी वहाँ संपन्न रूप से जीवन यापन कर रहे थे। लेकिन जैसे ही हिटलर ने पोलैंड पर कब्ज़ा किया, उसने धीरे-धीरे यहूदियों को हाशिये पर भेजना शुरू किया। यहूदियों के सार्वजनिक स्थानों पर जाने पर पाबंदी लगा दी गई। उनकी दुकानों से कुछ भी ख़रीदने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। (भारत में हम हाल ही में मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार देख चुके हैं)। नाज़ियों ने जब यहूदियों के लिए हाथ पर पट्टा बांधना अनिवार्य किया तो सैमुअल स्पिलमैन, जो व्लादिस्लाव स्पिलमैन के पिता थे, इस क़ानून का विरोध करते हैं। पर अगले ही क्षण वह उसी पट्टे को पहने रोड पर चल रहे होते हैं। सैमुअल स्पिलमैन को नाज़ी अधिकारी रोकते हैं और थप्पड़ मारते हुए कहते हैं, “तुम्हें नहीं पता कि सार्वजनिक सड़कों पर चलना यहूदियों को मना है?” सैमुअल स्पिलमैन चुपचाप रोड से उतर कर गंदी नालियों के बीच चलने लगते हैं।

यह सुनकर आपको तकलीफ हो रही होगी, तो कल्पना करें कि यही काम भारत में अछूतों-दलितों के साथ सदियों तक किया गया। नाज़ियों के बनाए सारे क़ानून यहूदियों को तो एक दशक तक भोगने पड़े जबकि अछूतों-दलितों ने इन क़ानूनों को सदियों तक भोगा है (और आज भी भोग रहे हैं)।

यही हाल आज इज़राइल में फ़िलिस्तीनी नागरिकों के साथ हो रहा है उनके साथ होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार को समझने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम इज़राइल की नीतियों और कानूनों पर ध्यान दें। इज़राइल की नीतियों को अक्सर “एक देश, दो कानून” के रूप में वर्णित किया जाता है, जहां यहूदी और फ़िलिस्तीनी नागरिकों के लिए अलग-अलग कानून और अधिकार लागू होते हैं। इज़राइल में फ़िलिस्तीनी नागरिकों को राष्ट्रीयता नहीं दी जाती, जबकि यहूदी नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त है। 2018 में पारित एक कानून ने इज़राइल को विशेष रूप से “यहूदी लोगों का राष्ट्र-राज्य” घोषित किया, जिससे फ़िलिस्तीनी नागरिकों के अधिकार और भी सीमित हो गए। ज्ञात रहे इज़राइल फिलिस्तीनी भू-भाग पर कब्ज़े के बाद अस्तित्व में आया है जो फिलिस्तीनी इज़राइल के अधीन आ गे यहाँ बात उनकी हो रही है [ अधिक जानकारी के लिए यह लिंक देखें :https://pasmandademocracy.com/culture-and-heritage/2024/06/international-court-of-justice-israel-genocide/ ]

फ़िलिस्तीनी नागरिकों को इज़राइल की राज्य भूमि का 80% से अधिक भाग लीज़ पर लेने से रोका गया है। भूमि अधिग्रहण और ज़ोनिंग पर भेदभावपूर्ण कानूनों के कारण फ़िलिस्तीनी नागरिकों को अपने घरों और संपत्तियों से वंचित किया जाता है। फ़िलिस्तीनी नागरिकों की आंदोलन की स्वतंत्रता पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए गए हैं। वेस्ट बैंक और गाज़ा पट्टी में फ़िलिस्तीनियों को विशेष पहचान पत्रों की आवश्यकता होती है, और उन्हें इज़राइल में प्रवेश करने या बाहर जाने के लिए कई विशेष परमिट की आवश्यकता होती है। फ़िलिस्तीनी नागरिकों के लिए शिक्षा और रोजगार के अवसरों में भी असमानता है। उन्हें उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिससे उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति कमजोर होती है। फ़िलिस्तीनी नागरिकों के क्षेत्रों में सार्वजनिक सेवाओं की कमी है, जैसे कि कचरा संग्रहण, बिजली, सार्वजनिक परिवहन, और पानी और स्वच्छता की सुविधाएं। यह असमानता उनके जीवन स्तर को और भी प्रभावित करती है।

फ़िलिस्तीनी नागरिकों को मतदान का अधिकार तो है, लेकिन उनकी राजनीतिक भागीदारी में कई बाधाएं हैं। चुनावों में उनके खिलाफ निगरानी और दमन के प्रयास किए जाते हैं, जिससे उनकी राजनीतिक आवाज़ कमजोर होती है। फ़िलिस्तीनी नागरिकों के विरोध प्रदर्शनों को दबाने के लिए पुलिस और अन्य सरकारी एजेंसियां अक्सर कठोर कदम उठाती हैं। उदाहरण के लिए, विरोध प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगाया जाता है और प्रदर्शनकारियों को आतंकवाद के समर्थन के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है।

फ़िलिस्तीनी नागरिक इज़राइल की कुल जनसंख्या का लगभग 20% हिस्सा हैं। अधिकांश फ़िलिस्तीनी नागरिक यहूदी समाज से अलग-थलग गांवों और शहरों में रहते हैं, केवल लगभग 8% मिश्रित यहूदी-फ़िलिस्तीनी शहरों में रहते हैं। फ़िलिस्तीनी नागरिक आमतौर पर गरीब शहरों में रहते हैं और उनकी औपचारिक शिक्षा कम होती है। फ़िलिस्तीनी परिवारों में गरीबी दर बहुत अधिक है – लगभग 45.3% परिवार और 57.8% बच्चे गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं।

इज़राइल की नीतियां और कानून फ़िलिस्तीनी नागरिकों के खिलाफ भेदभावपूर्ण हैं और उन्हें यहूदी नागरिकों की तुलना में कमतर स्थिति में रखते हैं। इन नीतियों के कारण फ़िलिस्तीनी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों में असमानता का सामना करना पड़ता है। यह स्थिति “एक देश, दो कानून” की वास्तविकता को दर्शाती है, जहां एक ही देश में दो अलग-अलग कानून और अधिकार लागू होते हैं।

क़ानून कैसे काम करता है, इसे समझना ज़रूरी है। जब क़ानून समाज के किसी ख़ास वर्ग के लिए बनाया जाता है और समाज में वर्गों के बीच दूरियाँ बढ़ा दी जाती हैं, तो समाज एक वर्ग के लिए बने अत्याचारी क़ानून के प्रति वैसा गुस्सा नहीं रखता, क्योंकि ऐसे क़ानून उन्हें प्रभावित नहीं कर रहे होते। आप कह सकते हैं, दलितों-यहूदियों ने ऐसा क़ानून माना ही क्यों! इसे भी समझते चलें कि क़ानून अपने पीछे उसे लागू करने की शक्ति (पुलिस-सेना) भी लेकर आता है और क़ानून तोड़ने वालों को सज़ा (अदालत द्वारा) देने की शक्ति भी रखता है। इसके अतिरिक्त शिक्षा (स्कूल-कॉलेज गुरुकुल-मदरसे) द्वारा आपको उस क़ानून का पालन करने की ट्रेनिंग भी दी जाती है।

फिल्म “The Pianist” त्रासदी, जीवटता, और मानवीय संवेदनाओं की गाथा है। यह हमें न केवल इतिहास के अंधकारमय अध्यायों की याद दिलाती है, बल्कि यह भी सिखाती है कि सबसे कठिन समय में भी संगीत और कला के माध्यम से मानव आत्मा की ताकत को कैसे बनाए रखा जा सकता है।

द पियानिस्ट (2002) जनसंहार दृश्य:

जर्मनी के कब्जे के बाद, पूरे पोलैंड से यहूदियों को इकट्ठा कर के वॉरसॉ के एक छोटे से कंसन्ट्रेशन कैम्प में भेज दिया गया। यह यहूदियों का एक और बार पलायन था। हम इतिहास में देखते हैं कि यहूदियों को कई बार उनके घरों और उनके देश से निकाला गया है।

फिल्म का यह दृश्य बड़ा ही हृदय विदारक है – यहूदियों को उनके घरों से निकाल दिया गया है, वे अपने सामान के साथ पलायन कर रहे हैं। सड़क के दोनों तरफ लोग खड़े होकर तमाशा देख रहे हैं। ऐसे दृश्य हमने फिलिस्तीन में भी देखे हैं और कश्मीर में भी। इन सारे यहूदियों को वॉरसॉ के कंसन्ट्रेशन कैम्प में डाल दिया जाता है। इस छोटे से कैम्प में तीन लाख सात हज़ार यहूदी रहते हैं।

यहूदियों को लगता है यह ज्यादा दिन नहीं चलेगा और एक न एक दिन अच्छे दिन आएँगे। इस कंसन्ट्रेशन कैम्प की परिस्थितियाँ बहुत ही अमानवीय हैं और लोग दाने-दाने को तरस रहे हैं। लोग सड़कों पर बेहोश गिरे हुए हैं, औरतें अपने पतियों को ढूंढती फिर रही हैं। वॉरसॉ के इस घेटो (Ghetto) को 10 फीट की दीवारों से घेरा गया था ताकि यहूदियों का बाहरी दुनिया से सम्पर्क टूट जाए।


क्या इस घेटो की तुलना हम गाजा पट्टी से कर सकते हैं जिसे अक्सर “खुले-आकाश की जेल” के रूप में वर्णित किया जाता है। 2007 से, गाजा इज़राइल द्वारा नाकेबंदी के अधीन है, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने “सामूहिक सजा” के रूप में वर्णित किया है। गाजा में लगभग 2.3 मिलियन लोग रहते हैं, जिनमें से अधिकांश शरणार्थी थी जो आज पूरी तरह तबाह हो चुकी है गाज़ा आज मलबों के ढेर में बदल चूका है।

घेटो के अंदर रोजगार के अवसर न के बराबर थे। सिर्फ कुछ ही लोगों को रोजगार परमिट मिलता था, जिसकी बदौलत वे जर्मन बस्तियों में जाकर काम कर सकते थे। कैम्प के अंदर एक यहूदी को एक दिन में 180 कैलोरी तक ही खाने को मिलता था, यानि आज के 5 रुपए के पार्ले जी बिस्कुट की आधी पैकेट जितना। कैम्प के अंदर भुखमरी की भयावहता दिखाने वाले कई दृश्य हैं, लेकिन उनमें जो सबसे ज्यादा भयावह है, वह दृश्य है जिसमें एक बूढ़ा व्यक्ति एक औरत से खाना छीनना चाहता है। इसी दौरान खाना कीचड़ में गिर जाता है। वह व्यक्ति इतना भूखा होता है कि वह कीचड़ में गिरे हुए खाने को जल्दी-जल्दी खाने लगता है।

स्पिलमैन का घर भी गरीबी और भुखमरी से परेशान है। उसका छोटा भाई यह सब देखकर दुखी है और गुस्से में भी है। परन्तु घर के बाकी सदस्य वर्तमान परिस्थितियों पर बात नहीं करना चाहते। उन्हें लगता है कि जुल्म और अत्याचार को नजरअंदाज करने से सब सही हो जाएगा, उन पर कभी मुसीबत नहीं आएगी।

उनकी यह पलायनवादी सोच ही उन्हें इस जुल्म के खिलाफ लड़ने से रोकती थी। स्पिलमैन का छोटा भाई हेनरिक स्पिलमैन अपने परिवार को वर्तमान परिस्थितियों पर लगातार बोलने और सोचने पर मजबूर करता है, पर उसे सरकार पर बात करने से रोक दिया जाता है। अभी वह कुछ कह ही रहा होता है कि बगल वाले घर में नाजी सैनिक घुस जाते हैं। बाकी के यहूदी अपने-अपने घरों की लाइट बंद कर खिड़की से देखते हैं। नाजी बगल वाले यहूदी के घर में व्हीलचेयर पर बैठे एक बुज़ुर्ग यहूदी को उसकी बालकनी से नीचे फेंक देते हैं। बाकी के घर वाले जान बचाकर भागने की कोशिश करते हैं, पर उन्हें गोलियों से भून दिया जाता है। जो लोग गोली लगने से नहीं मरते, उन पर नाजी अपनी कार चढ़ा देते हैं। ऐसी घटनाएं वहाँ रोज़ होती हैं, फिर भी लोग विद्रोह की बात नहीं करते या लड़ने के बारे में नहीं सोचते।

इस वारसॉ में कुछ लोग भी थे जो इस अत्याचार के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। वे यहूदियों को जागरूक करने के लिए अखबार निकालते थे और प्रतिरोध का प्रयास करते थे। इनके प्रयासों के चलते वारसॉ का शानदार विद्रोह भी हुआ। दूसरी ओर, कुछ यहूदी घेटो पुलिस के रूप में नाज़ियों के लिए काम कर रहे थे। ये घेटो पुलिस वाले नाज़ियों की तरह अपने ही यहूदी समुदाय पर जुल्म करते थे। यह स्थिति उन भारतीयों की तरह थी जिन्हें मैकाले ने ‘रंग से भारतीय और सोच से अंग्रेज़’ बनाया था।

घेटो पुलिस के यह सदस्य अपने समुदाय से इतने अलग हो चुके थे कि उन्हें परवाह नहीं थी कि नाज़ी लाखों यहूदियों को गैस चैम्बरों में डालकर मार रहे थे। फिर एक दिन आदेश आया कि सभी यहूदियों को ऑशविट्ज़ कैम्प में ट्रांसफ़र किया जाएगा। ऑशविट्ज़ पोलैंड में स्थित नाज़ियों द्वारा स्थापित यातना केंद्र था, जहां यहूदियों को गैस चैम्बरों में डालकर मारा जाता था। घेटो पुलिस को अंदाजा था कि यहूदियों के साथ क्या होने वाला है, फिर भी वे उन्हें ट्रेनों में ठूंसने के काम में लगे रहे।

फिल्म के बेहतरीन दृश्यों में से एक यह है कि ट्रेन के इंतज़ार में लोग एक जगह इकट्ठा हैं। अफरा-तफरी का माहौल है, किसी को किसी की परवाह नहीं है। एक औरत जोर-जोर से रो रही है और बार-बार कह रही है कि उसने ऐसा क्यों किया! स्पिलमैन के पूछने पर पता चलता है कि वह नाज़ियों से बचने के लिए एक जगह छुपी हुई थी, तभी उसका बच्चा रोने लगा। पकड़े जाने के डर से उसने अपने बच्चे का गला दबा दिया, फिर भी पकड़ी गई। एक बच्चा चिड़ियों का पिंजरा पकड़े अपने माँ-बाप को खोज रहा है। इन्हीं सब के बीच एक बच्चा टॉफी बेच रहा है। उसकी टॉफी की कीमत बहुत ज्यादा है, लेकिन हमें पता है कि इस पैसे का कोई मोल नहीं है। स्पिलमैन के पिता सभी से पैसा इकट्ठा करके उस बच्चे से टॉफी खरीदते हैं और उसे छह भागों में काटकर सभी को देते हैं। यह उनका एक साथ आखिरी खाना होता है। फिर ट्रेन आ जाती है और सभी को उसमें ठूंस दिया जाता है।

स्पिलमैन को एक यहूदी पुलिस वाला ट्रेन में चढ़ने से रोकता है और उसे वहां से भाग जाने को कहता है। स्पिलमैन के भागने और जिंदा रहने की जद्दोजहद अंत तक बनी रहती है। इस दौरान हम नाजी अफसर कप्तान विल्हेम होसेनफेल्ड (Thomas Kretschmann) को भी देखते हैं, जो नाजियों के बीच बची मानवता को दर्शाता है। कप्तान होसेनफेल्ड स्पिलमैन की हर संभव मदद करने की कोशिश करता है, पर अंत में रूसी सैनिकों द्वारा पकड़ा जाता है और मार दिया जाता है।

फिल्म के अंत में, व्लादिस्लाव स्पिलमैन (Adrien Brody) को कैप्टन विल्हेम होसेनफेल्ड (Thomas Kretschmann) द्वारा छुपाया जाता है और उसकी मदद की जाती है। होसेनफेल्ड स्पिलमैन को भोजन और एक कोट देता है ताकि वह ठंड से बच सके। जब रूसी सेना वारसॉ में प्रवेश करती है, तो होसेनफेल्ड और अन्य जर्मन सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया जाता है।होसेनफेल्ड को अन्य जर्मन सैनिकों के साथ सोवियत युद्ध कैदियों के शिविर में ले जाया जाता है। यहाँ उन्हें प्रताड़ित किया जाता है और अमानवीय परिस्थितियों में रखा जाता है। होसेनफेल्ड की मृत्यु 1952 में सोवियत कैद में होती है, जब स्पिलमैन रूसी सेना के आगमन के बाद बाहर आता है, तो पोलिश प्रतिरोधी सैनिक उसे होसेनफेल्ड द्वारा दिए गए कोट के कारण जर्मन समझ लेते हैं और उसे मारने की कोशिश करते हैं। स्पिलमैन को यह साबित करना पड़ता है कि वह पोलिश है और जर्मन नहीं।

द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में मित्र देशों की सेनाओं द्वारा जर्मनी में प्रवेश के दौरान जर्मन नागरिकों, विशेषकर महिलाओं, को कई प्रकार के अत्याचारों और हिंसा का सामना करना पड़ा। सोवियत सेना द्वारा जर्मन महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर बलात्कार और हिंसा की घटनाएं हुईं, विशेष रूप से पूर्वी जर्मनी और बर्लिन में। अनुमान है कि बर्लिन में लगभग 100,000 महिलाओं को बलात्कार का शिकार बनाया गया। अमेरिकी और ब्रिटिश सेनाओं द्वारा भी जर्मन नागरिकों के साथ कुछ अत्याचार किए गए, जिसमें लूटपाट, हिंसा और कुछ मामलों में बलात्कार शामिल थे।

नरसंहार ऐसी स्थिति नहीं है जो रातोंरात या बिना किसी चेतावनी के घटित हो जाए। नरसंहार के लिए एक संगठन की आवश्यकता होती है और यह वास्तव में एक सोची-समझी रणनीति होती है। यह रणनीति प्रायः सरकारों या राज्य तंत्र को नियंत्रित करने वाले समूहों द्वारा अपनाई जाती है। नरसंहार की परिभाषा को स्थापित करने में 1948 का “जनसंहार कन्वेंशन” महत्वपूर्ण था, जिसे वानसे सम्मेलन के बाद अपनाया गया था।हिटलर के नेतृत्व में नाज़ी शासन ने यहूदियों के खिलाफ नरसंहार की एक विस्तृत और संगठित योजना को लागू किया, जिसे “आख़िरी समाधान” (Final Solution) कहा जाता था। नाज़ी अधिकारियों ने यहूदियों के खिलाफ भेदभावपूर्ण क़ानून बनाए, जैसे 1935 का नूर्नबर्ग क़ानून जो यहूदियों को नागरिक अधिकारों से वंचित करता था। इसके बाद, 1938 में क्रिस्टल नाइट (Kristallnacht) की घटना हुई, जिसमें यहूदी व्यापारों को लूटा गया और सैकड़ों यहूदियों को गिरफ्तार किया गया। इसके अलावा, नाज़ी शासन ने बड़े पैमाने पर यहूदी नरसंहार के लिए अत्यधिक कुशलता से तैयार किए गए औद्योगिक कंसंट्रेशन कैम्प और गैस चैंबरों का इस्तेमाल किया। इस पूरे नरसंहार की योजना और उसके कार्यान्वयन ने साबित कर दिया कि जनसंहार की अवधारणा एक योजनाबद्ध और सामूहिक रूप से की गई कार्यवाही है।

हिटलर के बाद, द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) की स्थापना की गई, जो युद्ध अपराधों और जनसंहार जैसे मामलों की जांच करती है। हेग, नीदरलैंड में स्थापित यह अदालत संयुक्त राष्ट्र (UN) की सर्वोच्च अदालत है। वर्तमान में, ICJ में इज़राइल के खिलाफ नरसंहार के आरोपों की जांच की जा रही है। यह कदम दक्षिण अफ़्रीकी सरकार द्वारा इज़राइल पर गाजा में फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ “नरसंहार करने वाले” कृत्य करने का आरोप लगाने के बाद उठाया गया है। अदालत ने यह भी स्वीकृति दी है कि दक्षिण अफ्रीका को इज़राइल के खिलाफ यह दावा लाने का अधिकार है क्योंकि नरसंहार कन्वेंशन के पक्षकार सभी देशों का नरसंहार की रोकथाम, दमन और सज़ा सुनिश्चित करने में साझा हित है।

“द पियानिस्ट” केवल एक ऐतिहासिक फिल्म नहीं है। यह एक चेतावनी है कि कैसे नफरत और पूर्वाग्रह पूरे समाज को बर्बाद कर सकते हैं। फिल्म हमें याद दिलाती है कि मानवता की रक्षा के लिए हमें सतर्क रहना होगा और किसी भी प्रकार के भेदभाव का विरोध करना होगा। इस संपादित समीक्षा में मैंने नाज़ी अत्याचारों और होलोकॉस्ट की भयावहता पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है। मैंने कुछ विवरणों को और अधिक स्पष्ट किया है और भावनात्मक प्रभाव को बढ़ाने के लिए कुछ दृश्यों का विस्तृत वर्णन जोड़ा है। यह संशोधित समीक्षा फिल्म के मुख्य संदेश को और अधिक प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है।

फिल्म शुरू से अंत तक लाजवाब बनाई गई है। यही वजह है कि इस फिल्म को तीन ऑस्कर अवार्ड भी मिले। अभिनय की बात करें तो परिस्थितियों में बदलाव के साथ आने वाले सूक्ष्म परिवर्तन भी स्पिलमैन के चेहरे पर नजर आते हैं।

यह फिल्म आज के समय में इसलिए भी महत्वपूर्ण है, ताकि हम समझ सकें कि अगर एक बार होलोकॉस्ट हुआ है, तो वह दुबारा भी हो सकता है। अगर हम बारीकी से देखें तो जो कल हुआ, क्या वह आज नहीं हो रहा है? बल्कि बहुत कुछ पहले से कहीं ज्यादा बारीक और समृद्ध तरीके से किया जा रहा है। आज यहूदियों की तरह, क्या मुसलमानों को पहले से ही प्रोपेगैंडे के जरिए निशानदेही की जा चुकी है? क्या मुसलमानों को दुश्मन या राष्ट्र का शत्रु के रूप में पेश नहीं किया जा रहा है? इसलिए हमें एक बार फिर हिटलर और उसकी विचारधारा को समझना होगा। हमें इतिहास में दुबारा जाना होगा और फिर याद करना होगा ताकि दुबारा हिटलर पैदा न हो पाए।

अब्दुल्लाह मंसूर
लेखक, पसमांदा एक्विस्ट तथा पेशे से शिक्षक हैं। Youtube चैनल Pasmanda DEMOcracy के संचालक भी हैं।
अब्दुल्लाह मंसूर
लेखक, पसमांदा एक्विस्ट तथा पेशे से शिक्षक हैं। Youtube चैनल Pasmanda DEMOcracy के संचालक भी हैं।