~ अब्दुल्लाह मंसूर
एक तरफ ईरान में लड़कियाँ #FreeFromHijab का नारा बुलंद करते हुए हिजाब को हवा में लहरा रही हैं और इसे पितृसत्तात्मक बेड़ियों का प्रतीक मानकर जला रही हैं; तो दूसरी तरफ, हमारे यहाँ कर्नाटक में इसे ‘धार्मिक अधिकार’ बताकर कक्षाओं का बहिष्कार किया जा रहा है। यह विरोधाभास महज एक संयोग नहीं, बल्कि एक गहरी ‘सांस्कृतिक राजनीति’ का नतीजा है। कर्नाटक विवाद के बाद जब अशराफ़ नेतृत्व ने नारा दिया कि ‘हिजाब हमारा स्वाभिमान है’, तो उन्होंने बड़ी चालाकी से इस्लाम की आड़ में ‘सामंती मूल्यों’ को पसमांदा समाज पर थोप दिया।
लेकिन हमें ठहर कर सोचना होगा कि यह ‘स्वाभिमान’ वास्तव में किसका है? क्या यह उस श्रमजीवी पसमांदा औरत का है जो सदियों से खेतों और कारखानों में बिना पर्दे के खटती रही है, या यह उस अशराफ़िया संस्कृति का प्रतीक है जहाँ औरत को घर की चारदीवारी में कैद रखना ‘कुलीनता’ (Nobility) की निशानी मानी जाती थी? यह लेख इतिहास की उन परतों को खोलता है जहाँ नक़ाब ‘नैतिकता’ (Modesty) का नहीं, बल्कि ‘वर्ग-भेद’ (Class Distinction) का औजार था, जिसका इस्तेमाल आज़ाद (मलिक) और गुलाम (श्रमजीवी) औरतों में फर्क करने के लिए किया गया। हम यह भी समझेंगे कि कैसे आज ‘संस्कृतीकरण’ (Ashrafization) के नाम पर पसमांदा औरतों को उनकी ‘मेहनतकश विरासत’ से काटकर, उन्हें मानसिक और आर्थिक रूप से अशराफ़ों का ‘सांस्कृतिक गुलाम’ बनाने की साज़िश रची जा रही है।
मुस्लिम पहचान के प्रतीक के रूप में हिजाब का इतिहास बेहद जटिल है। बहुत से लोग ‘हिजाब’ शब्द का प्रयोग बुर्का के समानार्थक शब्द के रूप में करते हैं। किंतु कुरान में इसके उपयोग के संदर्भ में, ‘हिजाब’ एक ‘पर्दा या बाधा’ (42:51) को संदर्भित करता है। कुरान महिलाओं के परदे के संबंध में ‘जिलबाब’ और ‘खिमार’ का भी प्रयोग करता है। नकाब, बुर्का, अबाया, स्कार्फ और हिजाब—इन सभी को अलग-अलग संस्कृतियों में परदे के रूप में ही देखा जाता है। लगभग सभी प्राचीन संस्कृतियों ने घूंघट को सम्मान और ‘उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा’ (Elite Status) का प्रतीक माना। सिर पर घूंघट या दुपट्टा रखना और चेहरा छुपाना एक ऐसी प्रथा है जो इस्लाम के उदय से पहले की है।
नक़ाब/हिजाब का इतिहास और वर्ग-भेद
असीरिया (Assyria) एक प्रमुख प्राचीन मेसोपोटामियाई सभ्यता थी, जो 21वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 14वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक एक शहर-राज्य के रूप में अस्तित्व में थी। यहाँ पहली बार आज़ाद औरतों को नकाब/हिजाब पहनने का आदेश दिया गया। इसकी वजह यह थी कि उस वक़्त जंग में एक कबीला दूसरे कबीले को पूरी तरह खत्म कर देता था। पहले दौर में मर्दों को मार दिया जाता था और औरतों को गुलाम बना लिया जाता था, फिर जब दास व्यापार शुरू हुआ तो मर्दों को भी गुलाम बनाना शुरू कर दिया गया। यह तब संभव हुआ जब राज्य सैनिक रूप से मजबूत हुआ और किसी भी तरीके के विद्रोह को रोक सकता था। गुलाम औरतों को लोग शहरों में अपने घरों में रखते थे, जबकि मर्दों को खेतों में या जंगलों में काम के लिए रखा जाता था। जैसे-जैसे शहरों में गुलाम औरतों की संख्या बढ़ने लगी, आज़ाद औरत और गुलाम औरत के बीच फर्क करना जरूरी हो गया।

ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि हिजाब या घूंघट इस्लाम की देन नहीं, बल्कि प्राचीन मेसोपोटामियाई सभ्यता, विशेषकर असीरिया की वर्ग-व्यवस्था की उपज है। 21वीं सदी ईसा पूर्व से शुरू हुई इस सभ्यता में महिलाओं के लिए पर्दा करने का सबसे पहला लिखित और कानूनी प्रमाण ‘मध्य असीरियाई कानूनों’ (Middle Assyrian Laws) में मिलता है, जो लगभग 1075 ईसा पूर्व राजा तिग्लथ-पिलेसर प्रथम के शासनकाल में संकलित किए गए थे। इन कानूनों की धारा 40 (Tablet A, §40) हिजाब के इतिहास का काला सच उजागर करती है, जहाँ स्पष्ट रूप से ‘कुलीन’ और ‘श्रमजीवी’ महिलाओं के बीच लकीर खींची गई। कानून के तहत विवाहित और संभ्रांत महिलाओं के लिए घर से बाहर निकलते समय सिर ढकना अनिवार्य था, जो उनके किसी पुरुष की ‘निजी संपत्ति’ और ‘सम्मानित’ होने का सूचक था। इसके विपरीत, दासियों और वेश्याओं (पसमांदा/श्रमजीवी वर्ग) के लिए पर्दा करना सख्त मना था। कानून इतना क्रूर था कि यदि कोई दासी पर्दा करते हुए पकड़ी जाती, तो दंड स्वरूप उसके कपड़े उतार लिए जाते, उसे 50 कोड़े मारे जाते और उसके सिर पर गर्म कोलतार (Pitch) डाल दिया जाता था। इस प्रकार, इतिहास गवाह है कि नकाब की जड़ें ‘शर्म-ओ-हया’ या ‘नैतिकता’ में नहीं, बल्कि औरतों को ‘बाज़ारू’ (श्रम के लिए उपलब्ध) और ‘घरेलू’ (विशेषाधिकार प्राप्त) श्रेणियों में बांटने वाली सामंती मानसिकता में थीं। यहूदी भी इसी क्षेत्र में रहते थे, जिससे यह ‘कुलीनता का प्रतीक’ कालांतर में अन्य अब्राहमिक धर्मों में प्रवेश कर गया।
इस्लाम से पहले, अरब प्रायद्वीप विभिन्न संस्कृतियों का घर था। अरब रेगिस्तान में रहते थे और उनका जीवन जीने का तरीका सासानिड्स और बीजान्टिन से अलग था, जो शहरों में रहते थे और पर्दा करते थे। प्राचीन अरब में, आम बदू (बंजारे) लोग अपने चेहरे नहीं ढकते थे। लेकिन जैसे-जैसे इस्लाम फैला और साम्राज्य बढ़े, अरब समाज में भी ‘आका’ और ‘गुलाम’ का भेद गहरा होता गया। उमय्यद और अब्बासिद साम्राज्यों ने अफ्रीका, यूरोप और एशिया से दासों का उपयोग करना शुरू कर दिया। महलों में काम करने वाली गुलाम औरतों और हरम की रानियों (आज़ाद औरतों) के बीच फर्क करना ज़रूरी हो गया। यहाँ भी पर्दा ‘इज़्ज़त’ का पैमाना नहीं, बल्कि ‘हैसियत’ का पैमाना था।
कुरान और नक़ाब/हिजाब: एक पसमांदा विश्लेषण
हज़रत आयशा (र०अ०) पैगंबर मुहम्मद (स०अ०) और उनके साथियों के साथ यात्रा पर थीं। जैसे ही काफिला मदीना लौटने के लिए तैयार हुआ, उन्हें शौच की हाजत हुई। शौच से वापस आने पर, उनका हार कहीं गिर गया और वह उसे खोजने के लिए वापस चली गईं। काफिले को लगा कि वह अपनी ढकी हुई गाड़ी/पालकी के अंदर हैं और काफिला चल पड़ा। हज़रत आयशा (र०अ०) जब वापस लौटीं तो वहाँ कोई नहीं था। वह एक चट्टान पर बैठ कर इंतज़ार करने लगीं। एक सहाबी सफ़वान, जो काफिले के पीछे चल रहे थे, उन्होंने हज़रत आयशा (र०अ०) को देखा और अपने ऊँट पर बैठा कर मदीना ले आए। मुनाफिकों (इस्लाम के दुश्मन) ने इस स्थिति का फ़ायदा उठाना चाहा और अब्दुल्लाह बिन उबैय ने यह अफवाह फैलाना शुरू कर दिया कि आयशा और उसके साथी ने ज़िना का गुनाह किया है। पैगंबर मुहम्मद (स०अ०) इस स्थिति से बहुत विचलित हो गए कि अब मुनाफिकों ने उनके घर की औरतों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है ताकि इस्लाम का मिशन कमज़ोर हो जाए और समाज में उनकी प्रतिष्ठा कम हो जाए। इस मौके पर अल्लाह ने हज़रत आयशा (र०अ०) की बेगुनाही साबित करने के लिए कुरान में 11 आयतें (24:11-21) नाज़िल कीं।
यहाँ से इस्लामी विद्वान जावेद अहमद गामिदी तर्क देते हैं कि कुरान में हिजाब का जो हुक्म है वह सिर्फ पैगंबर मुहम्मद (स०अ०) के घर की औरतों के लिए है, क्योंकि पैगंबर (स०अ०) के घर की औरतों को मुनाफ़िक़ अपनी साजिशों का निशान बना रहे थे जिससे कुछ ‘स्कैंडल’ बन सके, जैसा कि हज़रत आयशा (र०अ०) के साथ इन मुनाफ़िकों ने किया था। इसलिए कुरान में हुक्म आया:
“ऐ नबी! अपनी पत्नियों, बेटियों और ईमानवाली स्त्रियों से कह दो कि वे अपने ऊपर अपनी चादरों का कुछ हिस्सा लटका लिया करें। इससे इस बात की अधिक सम्भावना है कि वे पहचान ली जाएँ और सताई न जाएँ। अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है।“ (कुरान 33:59)
यहाँ जावेद अहमद गामिदी कहते हैं कि ‘पहचान लिए जाने’ का जो हुक्म है, वह इसलिए है कि औरतों को कम से कम शौच जैसे ज़रूरी काम के लिए घर से बाहर निकलना ही पड़ता था। ऐसे में कोई मुनाफ़िक़ उनके साथ कोई बदसलूकी न कर सके, यह बहाना बनाते हुए कि वह पहचान न पाया कि यह कोई गुलाम लौंडी थी या पैगंबर (स०अ०) के घर की औरत। इसलिए यह पहचान आम औरतों से पैगंबर (स०अ०) की घर की औरतों को अलग करती थी।
इस आपात स्थिति में जब पैगंबर (स०अ०) के घर की औरतें निशाने पर थीं, तो उनके लिए कुछ विशेष नियम भी बनाने ज़रूरी हो गए थे। इन नियमों के लागू होने से पहले पैगंबर (स०अ०) ने उनको विकल्प दिया था कि अगर वह चाहें तो तलाक़ ले कर दूसरी जिंदगी शुरू कर सकती हैं, क्योंकि आम मुसलमान औरतों पर यह नियम लागू नहीं थे। जैसे पैगंबर (स०अ०) की घर की औरतों को पूरे मुसलमानों के लिए उनकी ‘माँ’ घोषित कर दिया गया। अब पैगंबर (स०अ०) की मृत्यु के बाद भी कोई उनसे शादी नहीं कर सकता था। उनको बिला वजह (बिना वजह) घर से बाहर जाने पर रोक लगा दी गई। बाहर निकलते वक़्त उनको चादर रखने का हुक्म दिया गया। कुरान कहता है: “और जब पैग़म्बर की बीवियों से कुछ माँगना हो तो पर्दे के बाहर से माँगा करो” (अल अहज़ाब: 53)।
अब दिक्कत यह हुई कि इस्लाम के विद्वानों ने यह समझा कि पैगंबर (स०अ०) की औरतें पूरी मुसलमान औरतों के लिए आदर्श हैं, इसलिए जो नियम इनके लिए बने थे वह सारी मुस्लिम औरतों के लिए लागू होने चाहिए। जबकि यह एक आपातकालीन प्रावधान था। जैसे कोरोना काल में जो नियम लागू हुए थे, वह सामान्य समय में लागू नहीं होते; और जैसे सूरह तौबा की आयत युद्धक्षेत्रों के लिए आई थी: “फिर, जब हराम (प्रतिष्ठित) महीने बीत जाएँ तो मुशरिकों को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो…” (9:5)। सामान्य समय में यह नियम लागू नहीं होंगे।
आम मुसलमान मर्द-औरतों के लिए जो नियम बने हैं, वह शिष्टाचार के लिए हैं। जैसे कुरान में अल्लाह ताला कहते हैं कि “मुसलमान मर्दों को हुक्म दो अपनी निगाहें कुछ नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफाजत करें… (सूरह नूर: 30)”। और आगे:
“(ऐ रसूल) ईमानदार औरतों से भी कह दो कि वह भी अपनी नज़रें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करें… और अपनी ओढ़नियों को (घूँघट ओढ़कर/डालकर) अपने गरेबानों (सीनों) पर डाले रहें…” (सूरह नूर: 31)
यहाँ स्पष्ट है कि जो लोग पूरे चेहरे के नकाब या बुर्का के लिए बहस करते हैं, वे निश्चित रूप से कुरान और सुन्नत के खिलाफ बहस कर रहे हैं। अरब के समाज में अब तक सार्वजनिक और निजी क्षेत्र का विभाजन स्पष्ट नहीं था। घरों में आमतौर से लोग आया-जाया करते थे, इसलिए मुसलमानों को शिष्टाचार के नियम भी सिखाना ज़रूरी था। जैसे कुरान में कहा गया है: “ऐ ईमान लानेवालो! अपने घरों के सिवा दूसरे घरों में प्रवेश न करो, जब तक कि रज़ामन्दी हासिल न कर लो…” (सूरह अन नूर: 27)। इस तरह इस्लाम ने औरत और मर्द के मिलने के कुछ अदब बता दिए हैं।
पसमांदा औरतें और हिजाब: नक़ल की होड़ (Sanskritization)
जैसा कि हमने ऊपर समझा है कि हिजाब/नकाब आम मुसलमान औरतों के लिए नहीं था, फिर भी अशराफ उलेमा ने इसे सभी पर लागू कर दिया। अशराफ घर की औरतों के लिए हिजाब/नकाब का पालन करना आसान था क्योंकि वह घरों में रहती थीं, पर जो प्रजा (पसमांदा) कौमें थीं, उनकी औरतों के लिए यह संभव न था कि वह हिजाब/नकाब लगा कर अशराफों के घर पानी लाएं, उनकी औरतों का मैला उठाएं, खेतों में धान बोएं या भठ्ठों में ईंटें लगाएं। अतः अशराफ मौलवी/लेखक/शायर भी इन औरतों को सम्बोधित नहीं करते हैं। वकार अहमद हवारी कहते हैं कि उनकी चाची को नकाब लगाने की कोई पाबंदी नहीं थी, क्योंकि धोबी समाज की औरतों पर इस्लाम वैसे लागू नहीं होता था जैसे अशराफ घरों की औरतों पर लागू होता था। उच्च जाति के मुसलमान घर की औरतों की हैसियत मर्दों की संपत्ति से अधिक न थी, जबकि निम्न जाति के मुसलमान घर की औरतें अपने मर्दों के साथ मिलकर रोटी-रोजी कमाने का काम करती थीं।
यही वह बिंदु है जहाँ हमें ‘पसमांदा दृष्टिकोण’ से बात करने की ज़रूरत है। जैसा कि हमने ऊपर समझा, हिजाब/नकाब ऐतिहासिक रूप से ‘आज़ाद’ और ‘कुलीन’ औरतों के लिए था, गुलाम या कामकाजी औरतों के लिए नहीं। दूसरे खलीफा हज़रत उमर (र०अ०) से जुड़ा एक बहुत प्रसिद्ध और प्रामाणिक वाकया है जिसे इमाम इब्न अबी शायबा ने अपनी किताब ‘अल-मुनसाफ’ (6/236) में दर्ज किया है। हज़रत उमर ने एक बार एक गुलाम औरत को हिजाब/चादर ओढ़े देखा तो उसे अपनी छड़ी से मारा और कहा: “क्या तुम आज़ाद औरतों की नकल करती हो?”
यह घटना पसमांदा विमर्श के लिए आँखें खोलने वाली है। अगर पर्दा इस्लाम में ‘नैतिकता’ (Haya) और ‘ईमान’ का अनिवार्य हिस्सा होता, तो हज़रत उमर (र०अ०) उस गुलाम औरत को पर्दा करने से रोकने के बजाय उसे पर्दा करने का हुक्म देते। क्या गुलाम औरत का ईमान या उसकी इज़्ज़त मायने नहीं रखती थी? दरअसल, उस दौर में पर्दा ‘शरीफ’ और ‘अमीर’ होने का स्टेटस सिंबल था।

भारत में अशराफ लेखकों ने जब हिजाब का ज़िक्र किया तो उसे अपनी घर की औरतों तक ही सीमित रखा; इसमें खादिमा और तवायफ शामिल नहीं थीं। राही मासूम रज़ा अपने मशहूर उपन्यास ‘आधा गाँव’ में लिखते हैं, “सैयदानियाँ तो डोली के बिना घर से निकल ही नहीं सकती थीं। ये तो गाँव की राकिनें, जुलाहिने, अहिरनें और चमाईनें होती थीं (जो ताज़िया देखने बेपर्दा निकलती थीं)।“
आपको अकबर इलाहाबादी का यह मशहूर शेर तो याद ही होगा:
“बेपर्दा नज़र आयीं जो कल चन्द बीबियां / अकबर ज़मीं में ग़ैरत-ए-क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो आप का पर्दा वह क्या हुआ / कहने लगीं के अक़्ल पे मर्दों के पड़ गया”
जब सामाजिक सुधारों के फलस्वरूप तथाकथित अशराफ बीबियाँ घरों से बाहर निकल के शिक्षा हासिल करने लगीं, तब इस बात से अकबर इलाहाबादी को बहुत कष्ट हुआ और उन्होंने अपनी क़ौम को शर्म दिलाते हुए इसका विरोध किया। जब सामाजिक बदलाव हुए और पसमांदा में भी शिक्षा और धन आने लगा और उन्होंने अपनी औरतों को भी तालीम के लिए स्कूल भेजना शुरू किया तो पनघट सूना हो गया। इस बदलाव से दुखी अकबर इलाहाबादी ने अपनी व्यथा को कुछ यूँ वर्णन किया:
“अब ना हिल मिल है ना वो पनिया का माहौल है / एक ननदिया थी सो वो भी अब दाखिले स्कूल है”
यहाँ अकबर इलाहाबादी को छोटी जाति के पर्दे की कोई फिक्र नहीं है। लेकिन आज हम क्या देख रहे हैं? इसे समाजशास्त्र की भाषा में ‘अशराफ़ियाकरण’ (Ashrafization) या ‘संस्कृतीकरण’ कहा जा सकता है। पसमांदा समाज, जिसे सदियों से अशराफ़ों ने ‘कमीना’ और ‘रज़ील’ कहा, अब थोड़ी आर्थिक तरक्की पाने के बाद ‘इज़्ज़त’ हासिल करने के लिए उसी अशराफ़ संस्कृति की नकल कर रहा है। उसे लगता है कि अगर उसकी औरतें भी बुर्के में रहेंगी, तो समाज उन्हें ‘शरीफ’ मानेगा। यह एक मनोवैज्ञानिक गुलामी है।
शिक्षा, हिजाब और अशराफ़िया राजनीति का षड्यंत्र
पूरी अशराफ़िया राजनीति ज़ज़्बाती मुद्दों की राजनीति रही है। सैकड़ों सालों से वे अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, अपने पहनावे को पूरे मुस्लिम समाज की पहचान के रूप में प्रस्तुत करते आए हैं। जब कर्नाटक हाईकोर्ट की फुल बेंच ने अपने फैसले में कहा कि “पवित्र कुरान में मुस्लिम महिलाओं के लिए हिजाब… अनिवार्य धार्मिक प्रथा (Essential Religious Practice) नहीं है…” तो अशराफ़िया राजनीति में भूचाल आ गया।
हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि अशरफ अली थानवी से ले कर सर सैयद तक औरतों को आधुनिक शिक्षा देने के खिलाफ थे। सर सैयद लिखते हैं: ‘औरतों की तालीम… खाना-दारी के उमूर (घर के काम)… पति की मोहब्बत, बच्चों की परवरिश… इसका मैं हामी हूं, इसके सिवा और किसी तालीम से बेज़ार हूं… मैं नहीं समझता कि औरतों को अफ़्रीक़ा और अमरीका का भूगोल सिखाने… से क्या नतीजा है।‘ (ख़ुतबात-ए-सर सैयद)
प्रसिद्ध देवबंदी विद्वान मौलाना अशरफ अली थानवी की किताब ‘बहिश्ती ज़ेवर’ भी इसी मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है। मौलाना ने लड़कियों के स्कूल जाने का कड़ा विरोध किया। अल्लामा इकबाल भी औरतों की आधुनिक शिक्षा के विरोधी थे, जो उनके इस शेर में दिखता है:
“लड़कियां पढ़ रही हैं अंग्रेज़ी / ढूंढ ली क़ौम ने फ़लाह की राह
रविश-ए-मग़रिबी है मद्द-ए-नज़र / वज़-ए-मशरिक़ को जानते हैं गुनाह”
ऐसे में यह सवाल बहुत वाजिब है कि जिस समाज में उसके आधुनिक बुद्धिजीवियों ने भी औरतों की आधुनिक शिक्षा का विरोध किया, वहां अगर आज हिजाब को शिक्षा की शर्त बना दिया जाए, तो यह सोचना होगा कि साज़िश किसकी है?
अगर कोई बालिग औरत अपनी मर्जी से हिजाब पहनती है, तो यह उसका व्यक्तिगत चुनाव हो सकता है। लेकिन जब 6-7 साल की बच्चियों को मदरसों और स्कूलों में हिजाब पहनने के लिए ‘कंडीशन’ किया जाता है, जब यह कहा जाता है कि “बिना हिजाब के औरत नंगी है”, तो यह ‘चॉइस’ नहीं, बल्कि ‘ब्रेनवॉशिंग’ है। पसमांदा आंदोलन का मक़सद जाति व्यवस्था और सामाजिक अन्याय को खत्म करना है। हिजाब, जो ऐतिहासिक रूप से सामंती और दास-व्यवस्था का प्रतीक रहा है, वह पसमांदा मुक्ति का प्रतीक कैसे हो सकता है? अशराफ़िया पितृसत्ता ने हमारे समाज की औरतों को समझाया है कि तुम्हारी ‘इज़्ज़त’ तुम्हारे काम में नहीं, तुम्हारे छिपने में है। जबकि पसमांदा संस्कृति श्रम की संस्कृति है।
वास्तविक रूप में, हिजाब का समर्थन मजहबी समूह की भावनाओं का समर्थन है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नहीं। यह पसमांदा औरतों को एक ‘पहचान’ (Identity) देने का नहीं, बल्कि उन्हें ‘अदृश्य’ (Invisible) करने का षड्यंत्र है। हमें यह तय करना होगा कि हमें अपनी बेटियों के हाथ में ‘किताब’ चाहिए या उन्हें ‘नकाब’ में कैद करना है? हमें अशराफ़ों की नकली तहज़ीब की नकल करनी है या अपनी मेहनतकश विरासत पर गर्व करना है? जिस दिन पसमांदा समाज ने ‘धर्म’ और ‘संस्कृति’ के बीच के इस अशराफ़िया खेल को समझ लिया, उस दिन वह हिजाब, उर्दू और शेरवानी के मोहपाश से निकलकर अपनी असली तरक्की की इबारत लिखेगा।
(लेखक पसमांदा आंदोलन के चिंतक हैं और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर मुखरता से लिखते हैं।)