ऐसा क्यों है कि हमारा समाज कभी भी किसी भी प्रकार के परिवर्तन या सुधार के लिए तैयार नहीं होता? कोई भी योजना या सुधारात्मक कार्रवाई, चाहे वह सरकार की ओर से हो या न्यायपालिका की तरफ़ से, चाहे वह पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में हो या हमारे समाज के मध्य से ही निकल कर आती हो, चाहे वह समाज के किसी भी वर्ग से हो या किसी एक व्यक्ति के द्वारा भी, हम क्यों इसे हमेशा शक की नज़र से देखते हैं? हम उसे हमेशा अपने ख़िलाफ़ साज़िश ही क्यों समझते हैं? अतीत में इसके अनेक उदाहरण हैं। चाहे वह पल्स पोलियो अभियान हो या अंग्रेज़ी/कंप्यूटर पढ़ाने की वकालत, लाउडस्पीकर से पहला परिचय हो या सरकारी वेतन पाने का मामला, हमने शुरू में इसे या तो अपने ख़िलाफ़ साज़िश माना या फिर सीधे-सीधे इसे हराम ही क़रार दे दिया। जब कि किसी भी बात को परखने का पैमाना तर्क और बुद्धि होनी चाहिए, भावुकता नहीं! ऐसा क्यों है कि हम सदैव “कौवा कान ले गया” कहावत को चरितार्थ करते हुए अपने कान को टटोलने की बजाय कौवे के पीछे भागते हैं? वर्तमान बहस के विषय ‘वक्फ संशोधन बिल’ को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

हमारे देश की केंद्रीय संस्थाओं और संगठनों में पहले नंबर पर रेलवे, दूसरे नंबर पर सेना और तीसरे नंबर पर वक़्फ़ बोर्ड के पास सब से ज़्यादा ज़मीनें हैं। देश का हर नागरिक रेलवे और सेना की सेवाओं और महत्व से तो भली-भांति परिचित है लेकिन क्या आप ने आज तक सुना है कि वक़्फ़ की ज़मीन पर क्या होता है या देश की भलाई में वक़्फ़ बोर्ड की क्या भूमिका है? मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि आपने नहीं सुना होगा कि वक़्फ़ बोर्ड की ज़मीन पर वास्तव में क्या होता है या वक़्फ़ बोर्ड ने आज तक देश के विकास और सेवाओं में क्या भूमिका निभाई है!इस के बारे में सिर्फ़ फरिश्ते को ही ख़बर है या फिर ख़ुदा को।

वक़्फ़ बोर्ड का कंट्रोल केवल 15% अशराफ़ (उच्च जाति) मुसलमानों के पास है। ख़रबों रुपये की इन इमारतों, अरबों रुपये की किराये की संपत्तियों को यह वर्ग आपस में मिल-बांट कर खाता है। वक़्फ़ बोर्ड की किसी भी ज़मीन पर आज तक न तो किसी विश्वविद्यालय की योजना बनी और न ही कोई उच्च स्तरीय महाविद्यालय स्थापित किया गया जिस से आम मुसलमानों का शैक्षिक स्तर सुधरता। जब कि जस्टिस राजिंदर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट चीख-चीख कर कहती है कि शैक्षणिक रूप से (पसमांदा) मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर है (सच्चर कमेटी के सुझाव और सिफ़ारिशों को इस लेख में समेट पाना संभव नहीं, उस का ज़िक्र फिर कभी)। वक़्फ़ की इन ज़मीनों पर आज तक न तो किसी प्रकार की फैक्ट्रियां स्थापित की गई हैं और न ही किसी प्रकार के रोज़गार के अवसर ही पैदा किए गए हैं। जब कि आर्थिक तौर पर देश के क़रीब 85 प्रतिशत मुसलमान बेरोज़गारी और मंदी की मार झेल रहे हैं।

वक़्फ़ की ज़मीन पर जो इक्का-दुक्का निर्माण कार्य किए भी गए हैं तो वह या तो मदरसे हैं या फिर मस्जिद, और वह भी सिर्फ़ पसमांदा (ओबीसी) मुसलमानों को भ्रमित करने के लिए। वास्तव में, यह आम मुसलमानों को भावनात्मक रूप से बेवकूफ़ बनाए रखने की पुरानी अशराफ़िया चाल के अलावा और कुछ नहीं है ताकि पसमांदा मुसलमान शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, समान प्रतिनिधित्व और असमानता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर उन से सवाल न कर सकें क्यों कि मुसलमानों के नाम पर जितने भी संगठन बने हैं, चाहे वह वक़्फ़ बोर्ड हो, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हो, जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिंद हो या कोई अन्य संगठन हो, उन पर विदेशी मूल के अशराफ़ मुसलमानों का ही नियंत्रण है। यहां तक कि देश के 21 विश्वविद्यालयों के विभिन्न पदों पर 90% से अधिक इन्ही अशराफ़ मुसलमानों का ही क़ब्ज़ा है

विदेशी मूल के यह अशराफ़ लोग पसमांदा मुसलमानों को फिर से मूर्ख बनाने के लिए वक़्फ़ की ज़मीन को अल्लाह की ज़मीन बतला रहे हैं ताकि वह अल्लाह के नाम पर अपनी दुकान चलाते रहें और आप सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक इन का बचाव करते रहें। भले ही आप उन अशराफ़ के इस दावे को मान भी लें कि वक़्फ़ की ज़मीन अल्लाह की ज़मीन है तो इस संदर्भ में यह भी देखें कि कुरान कहता है कि पूरी धरती ही अल्लाह ने बनाई है। इस नज़रिए के अनुसार, अशराफ़ वर्ग को पूरी पृथ्वी पर हीअपना दावा कर देना चाहिए, लेकिन नहीं उन को दूसरों से संबंध भी तो निभाने हैं ताकि दोनों हाथों में लड्डू रहे।

मेरी गुज़ारिश है कि हम पसमांदा मुसलमानों को कभी भी वक़्फ़ संशोधन बिल का विरोध नहीं करना चाहिए क्यों कि आरक्षण चाहे शिक्षा में हो या नौकरियों में, छात्रवृत्ति हो या अन्य कोई विशेषाधिकार, या फिर न्याय और निष्पक्षता का ही मामला क्यों न हो, सभी अधिकार हमें हमारे देश के संविधान और न्यायालय द्वारा दिये गये हैं। जब कि वहीं हम दूसरी तरफ़ देखते हैं तो पाते हैं कि अशराफ़ वर्ग ने पिछड़े मुसलमानों का कभी कोई भला नहीं किया है। न तो बुनकरों की समस्याओं को लेकर देश भर में कोई विरोध प्रदर्शन किया है और न ही हाल ही में कुरैशी समुदाय के कारोबार पर लगे प्रतिबंध को लेकर कोई आवाज़ ही बुलंद की है। इस के अतिरिक्त अतीत में भी अनगिनत ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जिस पर अशराफ़ वर्ग ने हमारा ही वोट ले कर विधानसभा और संसद में पहुंच कर, सत्ता, प्रभाव, धन एवं बाहुबल के बावजूद हमेशा आपराधिक चुप्पी साधे रखी है।

नोट: अगर अब भी आप का दिल और दिमाग़ इन तर्कों और सबूतों को नहीं मानता फिर भी कम से कम पसमांदा मुसलमानों को किसी भी तरह के जज़्बाती मुद्दे पर चाहे वह वक़्फ़ बोर्ड का मामला हो, सीएए-एनआरसी का मामला हो, तीन तलाक़ का मामला हो, उर्दू बचाओ, शरीयत बचाओ तहरीक हो या फिर समान नागरिक संहिता (यूसीसी), सड़कों पर उतरने से बचना चाहिए और सोशल मीडिया पर सीधे तौर से सरकार के ख़िलाफ़ उल्टा-सीधा लिखने से बिल्कुल परहेज़ करना चाहिए क्योंकि न तो आप लोग अपनी बिरादरी के नेताओं को विधानसभा में चुन कर भेज सके हैं और न ही संसद में। न तो आप के लोगों का प्रतिनिधित्व प्रशासन में है और न ही न्यायपालिका में, न ही आप के पास इतनी रसूख़ और ताक़त है जो आप को आसानी से जेल की सलाख़ों से आज़ाद करा सके या फिर पुलिसिया एनकाउंटर से बचा सके। इस लिए ख़ुदा के वास्ते अपने जज़्बात को कंट्रोल में रखें, अपने परिवार पर संकट लाने से बचें, अपनी शिक्षा और कारोबार पर ध्यान दें, अपना और अपनी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य संवारें ताकि वह मुल्क की तामीर और तरक़्क़ी में अहम रोल अदा कर सकें।

आप का हमदर्द और ख़ैर-ख़्वाह

मोहम्मद अलतमश



अलतमश ने जेएनयू से पढ़ाई की है, Pasmanda DEMOcracy चैनल के संस्थापकों में से हैं और विशेष शिक्षक के रूप में दिल्ली शिक्षा निदेशालय में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।