—लेखक: अब्दुल्लाह मंसूर

मऊनाथ भंजन का इतिहास बहुत पुराना और गहराई से भरा हुआ है। यह नगर उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में तमसा नदी के किनारे बसा है। इसकी पहचान न सिर्फ़ एक ऐतिहासिक नगर के रूप में है, बल्कि यह धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। लोकमान्यताओं में कहा जाता है कि यह वही स्थान है जहाँ त्रेतायुग में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था और जहाँ माता सीता ने वनवास के दौरान समय बिताया था। यह भी माना जाता है कि भगवान राम के दो पुत्र, लव और कुश, यहीं जन्मे थे। यद्यपि इन कथाओं का प्रमाण ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में नहीं मिलता, लेकिन पीढ़ियों से इनकी स्मृति यहाँ के लोगों की ज़ुबान और श्रद्धा में जीवित रही है।

मऊनाथ भंजन की पहचान केवल धार्मिक या पौराणिक कहानियों से नहीं जुड़ी, बल्कि यह एक ऐसा नगर है जहाँ विभिन्न शासकों और संस्कृतियों ने अपनी छाप छोड़ी। मौर्य और गुप्त साम्राज्यों के बाद यह क्षेत्र मुग़ल शासन के अधीन आ गया। कहा जाता है कि मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने इस ज़मीन को अपनी बेटी जहाँआरा बेग़म को जागीर के रूप में दिया था।

जहाँआरा ने इस क्षेत्र में कई इमारतें और एक शाही मस्जिद बनवाई। उन्होंने बुनकरों और दस्तकारों को यहाँ बसाया, जिससे इस क्षेत्र में कपड़ा उद्योग को बढ़ावा मिला। यहीं से मऊ की प्रसिद्ध भंजन साड़ी की परंपरा शुरू हुई। यह साड़ी आज भी देश और विदेश में मशहूर है। इस शहर को ‘तानाबाना की नगरी’ कहा जाता है क्योंकि यहाँ की साड़ियों में एक खास तरह की नफ़ासत और बुनावट होती है जो दूसरी जगहों से अलग है।

मऊनाथ भंजन की यह खासियत इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ की साड़ी और कपड़ा उद्योग में काम करने वाले ज़्यादातर लोग उन्हीं समुदायों से आते हैं जिन्हें सामाजिक रूप से पिछड़ा या पसमांदा कहा जाता है। अंसारी, मुमिन, दर्ज़ी, जुलाहे जैसे समुदाय पीढ़ियों से इस कला को ज़िंदा रखे हुए हैं, लेकिन इनके योगदान को अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

यह विडंबना है कि जो लोग देश की संस्कृति को अपने हाथों से बुनते हैं, वही लोग सम्मान और अधिकारों की लड़ाई में सबसे पीछे छोड़ दिए जाते हैं। मऊ की साड़ी सिर्फ़ एक कपड़ा नहीं, बल्कि मेहनतकश लोगों की पहचान है, जिनकी कहानी बाज़ार में कम, लेकिन इतिहास में कहीं गहरी दबी हुई है।

अंग्रेज़ी शासन के समय मऊनाथ भंजन आज़मगढ़ और गोरखपुर ज़िलों का हिस्सा था। यहाँ के लोगों ने आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 1857 की क्रांति से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक, इस क्षेत्र ने कई स्वतंत्रता सेनानियों को जन्म दिया। लंबे समय तक यह इलाका प्रशासनिक रूप से आज़मगढ़ के अधीन रहा, लेकिन 19,नवंबर 1988 को मऊनाथ भंजन को एक स्वतंत्र ज़िला घोषित किया गया। इस फैसले के बाद यहाँ के विकास को एक नई दिशा मिली। शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार और दस्तकारी के क्षेत्र में इसने तेज़ी से प्रगति की।

मऊनाथ भंजन का इतिहास एक और किस्से से भी जुड़ा हुआ है, जो अक्सर सबसे ज़्यादा सुनाया जाता है। यह कहानी बाबा मलिक ताहिर और नट जाति से जुड़ी हुई है। अधिकतर लोग मानते हैं कि लगभग सन् 1028 ईस्वी में बाबा मलिक ताहिर ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया और यहाँ के नट समुदाय को पराजित किया। लोककथाओं में कहा जाता है कि उस समय मऊ पर नटों का शासन था, और उन्हें राक्षसी प्रवृत्ति का बताया गया। इन कथाओं के अनुसार, बाबा मलिक ताहिर ने नट राजा को एक बोतल या किसी पत्थर में बंद कर ज़मीन में दफन कर दिया, और तभी से इस जगह का नाम ‘मरा नट भंजन’ पड़ा, जो बाद में बदलकर ‘मऊनाथ भंजन’ हो गया।

इस कहानी को बार-बार दोहराया गया है, लेकिन जब हम इसे ऐतिहासिक दृष्टि से देखते हैं, तो कई सवाल उठते हैं। सबसे पहला सवाल यह कि क्या सैय्यद शालार मसूद ग़ाज़ी, जिनके कहने पर बाबा मलिक ताहिर को यहाँ भेजा गया था, वास्तव में कोई ऐतिहासिक व्यक्ति थे या फिर वह एक धार्मिक लोककथा का हिस्सा थे? कुछ इतिहासकार उन्हें महमूद ग़ज़नवी का भांजा मानते हैं और उत्तर भारत में उनके नाम से मेलों का आयोजन भी होता है, लेकिन कई शोधकर्ता और लेखक मानते हैं कि ग़ाज़ी मियाँ की कहानी ज़्यादातर लोकविश्वास और कल्पना पर आधारित है। इस संदर्भ में इतिहासकार शाहिद अमीन की प्रसिद्ध किताब ‘Conquest and Community: The Afterlife of Warrior Saint Ghazi Miyan’ महत्वपूर्ण है। इस किताब में इस विषय को गहराई से समझाया है, जहाँ वे दिखाते हैं कि किस तरह ग़ाज़ी मियाँ की छवि एक योद्धा संत से ज़्यादा एक सामाजिक प्रक्रिया का हिस्सा है।

वह ग़ाज़ी मियाँ की ऐतिहासिकता पर सवाल उठाते हैं, तो फिर बाबा मलिक ताहिर के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। यह सोचने की बात है कि क्या वह भी एक धार्मिक प्रतीक के रूप में गढ़े गए हैं, जो किसी खास राजनीतिक या सांस्कृतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयोग किए गए हों? मऊ की कथाओं में नट जाति को जिस तरह से राक्षस, अत्याचारी या शैतानी बताया गया है, वह अपने आप में बताता है कि किस तरह विजेताओं ने इतिहास को अपनी सुविधा के अनुसार लिखा।

हकीकत यह है कि नट समुदाय भारत की उन घुमंतू जनजातियों में से एक है, जिनकी अपनी ज़िन्दगी, परंपरा और मेहनतकश पहचान रही है। वे लोककला, नाच-गाना, रस्सी पर चलने जैसे पारंपरिक कलाओं में निपुण रहे हैं और अपने श्रम से जीवन जीते रहे हैं। जब बाहरी ताक़तें किसी इलाके पर कब्ज़ा करती हैं, तो सबसे पहले वहाँ के मूल निवासियों को बदनाम किया जाता है — उन्हें असभ्य, जंगली या राक्षस बताया जाता है — ताकि उनकी जगह को कब्ज़ाने का नैतिक बहाना तैयार हो जाए। मऊ की कहानी भी कुछ-कुछ ऐसी ही है, जहाँ एक विजेता की गाथा को महान बना दिया गया और मूलनिवासी समुदाय को भुला दिया गया।

आज भी बाबा मलिक ताहिर की मज़ार पर एक बड़ा पत्थर रखा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि बाबा ने नट राजा को इसी से बंद कर ज़मीन में दफनाया था। उस पत्थर पर तीन एड़ियों के निशान भी हैं, जिन्हें बाबा की मौजूदगी का सबूत माना जाता है। लेकिन यह पूरा प्रसंग अगर किसी और दृष्टिकोण से देखा जाए, तो यह एक धार्मिक या पौराणिक प्रतीक कम, और एक विजेता द्वारा पराजित समुदाय पर लादी गई कहानी ज़्यादा लगती है। यह बात दुखद है कि आज भी नट समुदाय के लोग समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं और उनके बारे में तरह-तरह की भ्रांतियाँ फैलाई जाती हैं।

मऊनाथ भंजन नाम की उत्पत्ति को लेकर भी कई मत हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि ‘मऊ’ शब्द संस्कृत के ‘मयूर’ यानी मोर से निकला है, जबकि कुछ इसे तुर्की भाषा से जोड़ते हैं जहाँ इसका अर्थ पड़ाव या छावनी होता है। भारत में मऊ नाम की कई जगहें हैं जैसे फाफामऊ, मऊ आईमा, जाज मऊ, आदि — जहाँ यह शब्द स्थानीय विशेषणों से जुड़कर उपयोग में आता है। इससे यह साफ़ होता है कि मऊ नाम का संबंध सिर्फ किसी एक ऐतिहासिक घटना या व्यक्ति से नहीं, बल्कि भाषा, भूगोल और समाज की मिश्रित परंपराओं से है।

मऊनाथ भंजन के नाम में “नाथ” शब्द की उपस्थिति को लेकर यह स्वाभाविक जिज्ञासा है कि क्या इस नगर का संबंध नाथ संप्रदाय से है। नाथ संप्रदाय भारत का एक प्रमुख शैव योगी पंथ है, जिसकी उत्पत्ति आदिनाथ भगवान शिव से मानी जाती है। इसके प्रमुख गुरु मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ रहे हैं, जिन्होंने इस पंथ को सुव्यवस्थित रूप दिया और हठयोग की साधना को जन-जन तक पहुँचाया। यह संप्रदाय मध्यकाल में उत्तर भारत सहित पूरे देश में फैला और इसके अनुयायी योग, साधना और सामाजिक समरसता के लिए प्रसिद्ध रहे हैं।

जहाँ तक मऊनाथ भंजन का सवाल है, ऐतिहासिक रूप से इस नगर के नामकरण से जुड़ी लोककथाओं में “नाथ” शब्द के प्रयोग के पीछे दो प्रमुख धारणाएँ मिलती हैं। एक मत के अनुसार, ‘नाथ’ शब्द यहाँ के किसी नाथ योगी या उनकी उपस्थिति से जुड़ा हो सकता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में नाथ योगियों का प्रभाव रहा है, और गोरखनाथ (गोरखपुर) क्षेत्र भी नाथ परंपरा का बड़ा केंद्र रहा है। दूसरी ओर, कुछ विद्वानों का मानना है कि ‘नाथ’ शब्द स्थानीय शासकों या समुदायों के नाम से भी जुड़ा हो सकता है, जैसे कि “मऊ नट” समुदाय, जिनका उल्लेख नगर के इतिहास में मिलता है।

हालाँकि, उपलब्ध ऐतिहासिक स्रोतों में मऊनाथ भंजन में नाथ संप्रदाय की किसी बड़ी शाखा, मठ, या ऐतिहासिक केंद्र की सीधी पुष्टि नहीं होती। लेकिन यह भी सच है कि उत्तर भारत के तमाम नगरों और गाँवों में नाथ योगियों की यात्रा, साधना स्थल, और प्रभाव के प्रमाण मिलते हैं, और संभव है कि मऊनाथ भंजन भी कभी नाथ योगियों की साधना या प्रवास का स्थल रहा हो। इस नगर के नाम में ‘नाथ’ शब्द की उपस्थिति इस संभावना को बल देती है कि यहाँ नाथ संप्रदाय की कोई ऐतिहासिक छाया या लोकस्मृति अवश्य रही होगी

आज जब हम मऊनाथ भंजन के इतिहास को देखते हैं, तो हमें यह समझने की ज़रूरत है कि यह केवल एक नगर की कहानी नहीं, बल्कि उस संघर्ष की दास्तान है जो समाज के उन हिस्सों ने झेली है, जिन्हें इतिहास में कभी नायक नहीं बनाया गया। यह कहानी उन लोगों की है जो मिट्टी से जुड़े रहे, जिन्होंने रोटी और कपड़े के लिए संघर्ष किया, और जिनकी पहचान या तो गायब कर दी गई या फिर मिथकों में दफन कर दी गई। मऊ की असली आत्मा उसके बुनकरों, मज़दूरों, नटों और साधारण नागरिकों में बसती है — जो हर दौर में जीते रहे, लेकिन इतिहास में शायद ही कभी जगह पा सके।

इसलिए अब वक्त है कि हम इस शहर की कहानी को सिर्फ़ बाबा मलिक ताहिर की तलवार या ग़ाज़ी मियाँ की परछाई से न देखें। हमें यह भी देखना होगा कि यहाँ की ज़मीन पर किसने हल चलाया, किसने साड़ी बुनी, और किसने बोझ ढोया। यही वो इतिहास है जो आज भी ज़िंदा है — हमारी सड़कों, गलियों, और लोगों की आँखों में।