लेखक: अब्दुल्लाह मंसूर

अगर आप किसी छोटे बच्चे को देखें और फिर बीस साल बाद उसी व्यक्ति से दोबारा मिलें, तो आपको एक अजीब सा अहसास होगा। उस व्यक्ति का शरीर, उसके विचार, उसका चेहरा और यहाँ तक कि उसके शरीर की कोशिकाएं यानी सेल्स, सब कुछ बदल चुका होता है। ऐसे में एक बहुत गहरा और दिलचस्प सवाल खड़ा होता है कि उस एक साल के मासूम बच्चे और इस बीस साल के नौजवान के बीच आखिर ऐसा क्या ‘कॉमन’ है जिसे हम “मैं” या “तुम” कह रहे हैं? जब सब कुछ बदल गया है, तो यह कैसे दावा किया जा सकता है कि वह इंसान वही है? इस उलझन को सुलझाने के लिए, या शायद इसे और गहरा करने के लिए, मैं आपको यूनान के इतिहास से जुड़ी एक बहुत पुरानी और मशहूर कहानी सुनाता हूँ। यह कहानी एथेंस के महान नायक थीसियस और उनके शानदार जहाज़ की है, जो सदियों से विचारकों के लिए एक पहेली बनी हुई है।


थीसियस एक महान योद्धा थे जिन्होंने अपने लकड़ी के विशाल जहाज़ पर समंदर की कई खतरनाक यात्राएँ कीं और बड़ी-बड़ी जीतें हासिल कीं। जब वह अपनी यात्राओं से वापस लौटे, तो एथेंस के लोगों ने तय किया कि अपने नायक के सम्मान में वे इस जहाज़ को एक स्मारक की तरह बंदरगाह पर हमेशा सहेज कर रखेंगे। लेकिन कुदरत का नियम है कि हर चीज़ समय के साथ पुरानी होती है। चूंकि जहाज़ लकड़ी का बना था, तो धीरे-धीरे समय बीतता गया और मौसम की मार उस पर पड़ने लगी। जहाज़ का एक तख्ता धूप और पानी की वजह से सड़ गया। लोगों ने कहा कि यह हमारे नायक की निशानी है, हम इसे ख़राब नहीं होने देंगे। उन्होंने उस सड़े हुए तख्ते को निकाला और उसकी जगह एक बिल्कुल नया और मज़बूत तख्ता लगा दिया। कुछ साल और बीते, तो मस्तूल का एक हिस्सा कमज़ोर पड़ गया, उसे भी बदल दिया गया। फिर धीरे-धीरे पतवार बदली गई। यह सिलसिला एक-दो साल नहीं, बल्कि कई दशकों तक चलता रहा।


करीब सौ साल गुज़र जाने के बाद एक अजीब स्थिति पैदा हो गई। अब उस जहाज़ का एक भी असली या मूल पुर्जा बाकी नहीं था। उसकी हर लकड़ी, हर कील और हर रस्सी को नई चीज़ों से बदला जा चुका था। लेकिन जहाज़ का नाम अब भी वही था ‘थीसियस का जहाज़’, और उसका आकार-प्रकार बिल्कुल वैसा ही दिखता था जैसा सौ साल पहले था। अब यहाँ से असली पहेली शुरू होती है और पहला सवाल यही उठता है कि क्या यह अब भी ‘थीसियस का जहाज़’ है? जब इसका कोई भी हिस्सा असली नहीं बचा, तो यह वही जहाज़ कैसे हो सकता है? लेकिन कहानी में एक बहुत दिलचस्प मोड़ अभी बाकी है। मान लीजिए कि जिन पुराने और सड़े हुए तख्तों को हर बार निकालकर फेंका जाना चाहिए था, उन्हें किसी समझदार व्यक्ति ने फेंका नहीं, बल्कि एक गोदाम में संभाल कर रखता गया। सौ साल बाद, जब सारे पुराने हिस्से जमा हो गए, तो एक कारीगर ने उन सभी असली, लेकिन पुराने हिस्सों को जोड़कर हूबहू वैसा ही एक और जहाज़ दोबारा खड़ा कर दिया।
अब हमारे सामने एक बहुत बड़ी दुविधा है। हमारे सामने दो जहाज़ खड़े हैं। एक वह जो बंदरगाह पर शान से खड़ा है, जिसे लगातार मरम्मत करके नया रखा गया है और जिसमें कोई भी पुराना हिस्सा नहीं है। दूसरा वह जो गोदाम में पुराने और असली हिस्सों से बनकर तैयार हुआ है। अब आप बताइए, असली ‘थीसियस का जहाज़’ कौन सा है? यह सवाल सिर्फ एक जहाज़ का नहीं है, यह सवाल हमारी और आपकी ज़िंदगी का है। यह पहेली हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि ‘पहचान’ आखिर किस चीज़ में है? क्या पहचान उन हिस्सों में है जिनसे हम बने हैं, या फिर उस ढांचे और निरंतरता में है जो समय के साथ कायम रहती है? इसी तरह की बात यूनान के ही एक और महान दार्शनिक हेराक्लिटस ने कही थी। उन्होंने कहा था कि “आप एक ही नदी में दो बार नहीं उतर सकते।” उनका मतलब यह था कि जब आप दूसरी बार नदी में कदम रखते हैं, तब तक नदी का पानी बहकर आगे जा चुका होता है और वहां नया पानी आ चुका होता है। इतना ही नहीं, आप खुद भी बदल चुके होते हैं। आप पहले से थोड़े बड़े हो गए हैं, आपके विचार बदल गए हैं और आपके शरीर में भी सूक्ष्म परिवर्तन हो चुके होते हैं।
वैज्ञानिक भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि हमारे शरीर की लगभग सभी कोशिकाएं हर सात से दस साल में पूरी तरह बदल जाती हैं। आपके विचार, आपकी पसंद-नापसंद और आपकी मान्यताएं भी समय के साथ बदल जाती हैं। जो ‘आप’ दस साल पहले थे, क्या आज भी वही हैं? अगर हाँ, तो वो कौन सी चीज़ है कि जो बदली नहीं? क्या वह हमारी यादें हैं, हमारा शरीर है या हमारी चेतना? अगर हिस्सों को बदलने से पहचान पर सवाल उठता है, तो क्या अलग-अलग हिस्सों को जोड़ने से पहचान बनती है? यह हमें फ्रेंकस्टीन के राक्षस की कहानी की याद दिलाता है, जिसमें अलग-अलग इंसानी अंगों को जोड़कर एक नया जीव बनाया गया था। उस जीव की पहचान न तो उस व्यक्ति की थी जिसका हाथ लिया गया, न उसकी जिसका दिल लिया गया। वह एक नई चेतना थी। इससे यह समझ आता है कि हम सिर्फ अपने शरीर के अंगों का जोड़ नहीं हैं, हम उससे कुछ ज्यादा हैं।


जहाँ यूनानी दार्शनिक हमें इस पहेली में उलझा हुआ छोड़ देते हैं कि असली कौन है, वहीं भारतीय दर्शन, विशेषकर बौद्ध संत नागार्जुन हमें इस पहेली से बाहर निकलने का एक बहुत ही तार्किक और क्रांतिकारी रास्ता दिखाते हैं। नागार्जुन का सिद्धांत ‘शून्यवाद’ कहलाता है। जब नागार्जुन ‘शून्य’ कहते हैं, तो उनका मतलब ‘कुछ नहीं’ से नहीं होता। उनका मतलब ‘खालीपन’ से है, यानी कोई भी चीज़ अपने आप में, स्वतंत्र रूप से और हमेशा के लिए मौजूद नहीं होती। हर चीज़ का अस्तित्व दूसरी चीज़ों पर निर्भर करता है। नागार्जुन के नज़रिए से देखें, तो थीसियस के जहाज़ की पहेली इसलिए पहेली लग रही है क्योंकि हम एक ‘असली’ जहाज़ को खोज रहे हैं, हम उस लकड़ी के ढेर में एक ‘आत्मा’ खोज रहे हैं जो वहां है ही नहीं। नागार्जुन कहते हैं कि ‘जहाज़’ अपने आप में कोई ठोस चीज़ नहीं है। वह तो बस एक नाम है जो हमने लकड़ी, कीलों और एक खास बनावट के मेल को दिया है। जैसे ही आप तख्तों को अलग कर दें, वह ‘जहाज़’ नहीं रहता। इसलिए, नागार्जुन के लिए दोनों ही जहाज़ ‘थीसियस के जहाज़’ कहे जा सकते हैं और दोनों ही उस स्थायी पहचान से खाली हैं। पहला जहाज़ अपनी कहानी और रूप के आधार पर असली है, तो दूसरा जहाज़ अपनी सामग्री के आधार पर।


पहेली तब सुलझ जाती है जब हम यह मान लेते हैं कि कोई एक ‘असली’ और ‘ठोस’ पहचान होती ही नहीं है। यही बात हमारे ‘मैं’ पर भी लागू होती है। हम भी उस जहाज़ की तरह हैं। हम कोई एक ठोस चट्टान नहीं हैं, बल्कि हम एक बहती हुई नदी की तरह हैं। आधुनिक मनोविज्ञान भी इसी दिशा में सोचता है कि ‘मैं’ कोई एक जगह बैठा हुआ नहीं है। हमारी पहचान बंटी हुई है। कभी हमारे विचार हम पर हावी होते हैं, कभी हमारी भावनाएं और कभी हमारी आदतें। जब आप पढ़ रहे होते हैं तो आपके विचार आपकी पहचान हैं, जब आप किसी बच्चे को प्यार कर रहे होते हैं तो आपकी भावनाएं ‘मैं’ बन जाती हैं। हम कह सकते हैं कि जो पहेली सदियों से लोगों को परेशान करती रही है, उसका जवाब शायद यही है कि पहचान कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे आप खोज कर पा लेंगे। पहचान कोई वस्तु या ‘संज्ञा’ (Noun) नहीं है, बल्कि यह एक प्रक्रिया या ‘क्रिया’ (Verb) है। आप एक जमी हुई मूर्ति नहीं हैं, आप एक लगातार चलने वाली कहानी हैं जिसे आप हर पल जी रहे हैं और हर पल नया रच रहे हैं। आप कल जो थे, आज उससे कुछ अलग हैं, और कल कुछ और होंगे, और यही बदलाव ही जीवन की असली सुंदरता है