लेखक ~ डॉ. ऊज़्मा खातून

भारतीय मुस्लिम समाज में चल रही चर्चाओं (discourse) के बीच, बहुविवाह (एक से ज़्यादा शादियाँ) का मुद्दा आस्था, कानून और सामाजिक इंसाफ के एक अहम मोड़ पर खड़ा है। बरसों से इस मसले पर अदालतों, मदरसों और आम घरों की बैठकों में बहस होती रही है। लेकिन, 21वीं सदी में जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं, यह बातचीत अब सिर्फ मज़हबी बहस तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि यह मानवाधिकार और संवैधानिक नैतिकता की तरफ मुड़ रही है।

ज़मीनी हकीकत समझने के लिए हमें ‘भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन’ (BMMA) का सर्वे देखना चाहिए। उन्होंने पूरे भारत में 2,500 महिलाओं पर सर्वे किया, जिसमें पहली और दूसरी, दोनों पत्नियां शामिल थीं। यह डेटा हमें याद दिलाता है कि बिना रोक-टोक वाले शादी के कानून कितने खतरनाक हो सकते हैं। नतीजे बताते हैं कि बहुविवाह मर्दों के लिए तो शायद एक ‘किताबी हक़’ हो, लेकिन औरतों के लिए यह गहरे सदमे (trauma) की वजह है। महिलाओं ने बताया कि उन्हें भारी आर्थिक तंगी, सामाजिक ज़िल्लत और खराब सेहत का सामना करना पड़ा।

ये सिर्फ आंकड़े नहीं हैं, बल्कि ये उन औरतों की खामोश चीखें हैं। मिसाल के तौर पर, ‘आवाज़ द वॉयस’ की एक रिपोर्ट में तस्लीम की दर्दनाक कहानी सामने आई। गर्भवती होने के बावजूद उसे घर से निकाल दिया गया और अवैध तरीके से तीन तलाक दे दिया गया। उसके पति ने दूसरी शादी का रास्ता साफ करने के लिए उसे ‘पागल’ करार दे दिया। उसकी कहानी बताती है कि कैसे बहुविवाह का डर ही मानसिक टूटन और बदनामी का कारण बन जाता है। ये कहानियां बताती हैं कि अब सुधार (reform) सिर्फ कानूनी ज़रूरत नहीं, बल्कि इंसानियत का तकाज़ा है।

यह लेख इन आंकड़ों से आगे बढ़कर बहुविवाह के मज़हबी और कानूनी पहलुओं को टटोलने की कोशिश है। इसका तर्क है कि बहुविवाह पर रोक लगाना या कड़े नियम बनाना इस्लाम पर हमला नहीं है, बल्कि यह कुरान के इंसाफ और बराबरी के पैगाम को पूरा करने की दिशा में एक कदम है।

सामाजिक हकीकत और संवैधानिक अधिकार

बिना किसी नियम के बहुविवाह के खिलाफ तर्क सबसे पहले इंसानियत से जुड़ा है। बीबीसी की 2022 की एक रिपोर्ट में रेशमा की दुखद कहानी सामने आई। 2019 में शादी हुई, लेकिन पति ने दूसरी शादी के लिए उसे और उसके दूध पीते बच्चे को छोड़ दिया। मदद की जगह उसे घरेलू हिंसा झेलनी पड़ी। दिल्ली हाईकोर्ट में उसने इस प्रथा को सही ही “अमानवीय और वहशी” (barbaric) कहा।

पुराने ज़माने में जंगी बेवाओं (war widows) और यतीमों की देखभाल के लिए बहुविवाह की दलील दी जाती थी, लेकिन आज भारत में हकीकत अलग है। आज यह हमदर्दी या खैरात के लिए नहीं, बल्कि अक्सर सिर्फ शौक या मर्दवादी सोच (patriarchal entitlement) की वजह से होता है। इसका पूरा खामियाज़ा पहली पत्नी और बच्चों को भुगतना पड़ता है। जब कम कमाई वाला आदमी दूसरी शादी करता है, तो जाहिर है कि वह पहली पत्नी के हिस्से के संसाधनों (पैसा और सुविधा) को बांट देता है। यह चीज़ ‘पसमांदा’ परिवारों को गरीबी और पिछड़ेपन के चक्र में फंसाए रखती है।

इंडिया टीवी पर दिखाई गई इरफ़ाना फिरोज़ कुरैशी की कहानी इस आर्थिक बर्बादी की जीती-जागती मिसाल है। पति की छिपी हुई पिछली शादियों का पता चलने पर उसे घर से बेदखल कर दिया गया। उसे दाने-दाने को मोहताज होना पड़ा। जॉर्डन की एक स्टडी (2006) भी यही कहती है कि बहुविवाह तभी ठीक चल सकता है जब पिता बहुत अमीर हो और पक्का इंसाफ करने वाला हो। भारत में, जहां दूसरी शादी से पहले आदमी की हैसियत जांचने का कोई कानून नहीं है, वहां यह बर्बादी का नुस्खा बन जाता है।

इसके अलावा, भारत का कानून भी यहां एक बड़ी नाइंसाफी पैदा करता है जो संविधान के अनुच्छेद 14 के खिलाफ है। हिंदुओं और ईसाइयों के लिए दूसरी शादी करना अपराध है और इसकी सज़ा है। लेकिन, मुस्लिम मर्दों को ‘पर्सनल लॉ’ की वजह से छूट मिली हुई है। यानी एक मुस्लिम औरत को वो कानूनी सुरक्षा नहीं मिलती जो उसकी हिंदू या ईसाई पड़ोसी को हासिल है। मशहूर जज जस्टिस वी.आर. कृष्णा अय्यर कहते थे कि मज़हबी कानून इंसान की गरिमा से ऊपर नहीं हो सकते। जिस तरह ‘तीन तलाक’ को मनमाना होने की वजह से खत्म किया गया, वैसे ही अनियंत्रित बहुविवाह को भी नाइंसाफी का प्रतीक माना जाना चाहिए।

एक विवाह: कुदरत का उसूल

भले ही सामाजिक और कानूनी तर्क दमदार हैं, लेकिन बदलाव के लिए सबसे मजबूत दलील खुद इस्लाम के भीतर से आती है। यह एक बड़ी गलतफहमी है कि इस्लाम बहुविवाह को बढ़ावा देता है। इसे गलत साबित करने के लिए हमें सृष्टि की शुरुआत को देखना होगा। जब अल्लाह ने पहले इंसान, पैगंबर आदम को बनाया, तो उनके लिए सिर्फ एक साथी, माँ हव्वा (Eve) को बनाया।

यह इस बात का सबसे बड़ा सबूत है कि अल्लाह की मर्जी क्या है। अगर बहुविवाह इंसान की फितरत (natural state) होती, या चार बीवियां रखना ज़रूरी होता, तो अल्लाह आदम के लिए चार ‘हव्वा’ बनाते। रचयिता ने एक जोड़ा—एक मर्द और एक औरत—बनाकर यह तय कर दिया कि ‘एक विवाह’ (Monogamy) ही इंसानियत की असल फितरत है। इससे अलग हटना नियम नहीं, बल्कि अपवाद (exception) है।

यह बात तब और साफ हो जाती है जब हम कुरान को मर्दवादी नज़रिए के बजाय इंसाफ की नज़र से पढ़ते हैं। जिस आयत (सूरह अन-निसा, 4:3) का हवाला दिया जाता है, वह युद्ध के बाद यतीमों की हिफाज़त के लिए नाज़िल हुई थी, न कि मर्दों की हवस पूरी करने के लिए। खास बात यह है कि कुरान इस इजाज़त के साथ एक बहुत सख्त शर्त लगाता है: “इंसाफ।“ यह कहता है, “अगर तुम्हें डर हो कि तुम इंसाफ नहीं कर सकोगे, तो बस एक ही।“ उसी सूरह (4:129) में आगे कुरान इंसानी कमजोरी पर फैसला सुनाता है: “और तुम अपनी बीवियों के बीच बराबरी (इंसाफ) करने की ताकत नहीं रखोगे, चाहे तुम कितना भी चाहो।“

जब इन आयतों को मिलाकर देखा जाए, तो पैगाम साफ है: कुरान इंसाफ का ऐसा पैमाना तय करता है जिसे बहुविवाह में पूरा करना इंसान के बस की बात नहीं। इसलिए, यह बताकर कि इंसाफ करना नामुमकिन है, कुरान असल में ‘एक शादी’ की ही तरफदारी करता है। अस्मा बरलास जैसी विद्वान मानती हैं कि कुरान औरतों की हिफाज़त करता है, लेकिन मर्दों ने अपनी व्याख्या (interpretation) में इन शर्तों को नज़रअंदाज़ कर दिया। यही वजह है कि ट्यूनीशिया जैसे देश ने इसे पूरी तरह बैन कर दिया—यह कहकर कि जब कुरान की ‘इंसाफ’ वाली शर्त पूरी नहीं हो सकती, तो यह जायज़ नहीं। पाकिस्तान, इराक और सीरिया जैसे देशों ने भी इस पर कड़े नियम लगाए हैं।

आगे की राह

भारतीय मुस्लिम समाज के लिए आगे का रास्ता यह कुबूल करने में है कि हमारे मौजूदा कानून न तो हमारे धर्मग्रंथों से मेल खाते हैं और न ही आज के ज़माने की हकीकत से। सुधार को टालना इस्लाम का बचाव नहीं है, बल्कि यह उस रिवाज का बचाव है जो आदम और हव्वा के साथ तय किए गए ‘एक विवाह’ के ईश्वरीय उसूल के खिलाफ है। पसमांदा आंदोलन, जो मजलूमों (शोषितों) के वकार की लड़ाई लड़ता है, उसे इस मुद्दे की अगुवाई करनी चाहिए। हम बाहर सरकार से तो इंसाफ मांगते हैं, लेकिन अपने ही घरों में औरतों के साथ नाइंसाफी होने दें, यह नहीं चलेगा। बहुविवाह पर सख्त कानून बनाकर हम अपने दीन से नहीं फिरेंगे, बल्कि हम कुरान के इंसाफ के हुक्म को पूरा करेंगे और मुस्लिम महिलाओं को वो बराबरी और सम्मान दिलाएंगे जिसकी वो हकदार हैं।

डॉ. ऊज़्मा खातून, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की पूर्व फैकल्टी, एक लेखिका, स्तंभकार और सामाजिक चिंतक हैं।