Tag: GenderJustice

बहुविवाह: मज़हबी हक़ या सामाजिक नाइंसाफी?

भारतीय मुस्लिम समाज में बहुविवाह का मुद्दा अब धार्मिक बहस से आगे बढ़कर मानवाधिकार, संवैधानिक समानता और सामाजिक न्याय का प्रश्न बन गया है। BMMA के सर्वे और कई महिलाओं की दर्दनाक कहानियाँ दिखाती हैं कि अनियंत्रित बहुविवाह आर्थिक तंगी, मानसिक आघात और सामाजिक अपमान का कारण बनता है, विशेषकर पसमांदा परिवारों में। कानूनी असमानता भी बनी हुई है, जहाँ मुस्लिम महिलाओं को वह सुरक्षा नहीं मिलती जो अन्य समुदायों की महिलाओं को प्राप्त है। कुरान की ‘इंसाफ’ की शर्त practically पूरी होना नामुमकिन बताती है, जिससे एक विवाह का सिद्धांत ही मूल बनता है। इसलिए सुधार और कड़े कानून इंसाफ तथा मानवीय गरिमा की मांग हैं।

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मुस्लिम समाज को ‘इस्लामिक फेमिनिज्म’ की ज़रूरत क्यों है?

इस्लामिक फेमिनिज्म मुस्लिम समाजों में बराबरी और लैंगिक न्याय को पुनर्जीवित करने वाला आंदोलन है, जो कुरान और हदीस की पितृसत्तात्मक व्याख्याओं को चुनौती देकर उनके नैतिक उसूलों—इंसाफ, तौहीद और तक़वा—को केंद्र में रखता है। अस्मा बरलास, अमीना वदूद और फातिमा मेरनिसी जैसी विद्वान दिखाती हैं कि कई भेदभावपूर्ण प्रथाएँ धर्म नहीं, बल्कि सामाजिक पितृसत्ता की उपज हैं। यह आंदोलन कानूनी व सामाजिक सुधारों, विशेषकर पारिवारिक कानूनों में समानता की मांग करता है। आलोचनाओं के बावजूद, इस्लामिक फेमिनिज्म औरतों के अधिकार, गरिमा और समान भागीदारी को बढ़ावा देने वाला महत्वपूर्ण प्रयास है।

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पितृसत्ता और मर्द: मर्दानगी का बोझ, एक अनकही कैद

लेखक: अब्दुल्लाह मंसूर हमारे समाज में बहुत पुरानी एक सोच चली आ रही है, जिसमें मर्दों को औरतों से...

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