Author: Abdullah Mansoor

धर्म: शोषण का औज़ार या मुक्ति का माध्यम?

मसऊद आलम फलाही जैसे विचारकों ने धार्मिक ग्रंथों की नई व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने इस्लामिक शिक्षाओं से समानता और न्याय का संदेश खोजा और साबित किया कि धर्म दमनकारी नहीं बल्कि मुक्ति दिलाने वाला हो सकता है। दक्षिण अफ्रीका में अपार्थाइड विरोधी संघर्ष इसका एक उदाहरण है जहां आर्कबिशप डेसमंड टूटू ने ईसाई सिद्धांतों का उपयोग करते हुए नस्लीय समानता की वकालत की। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने भी बाइबिल की शिक्षाओं पर आधारित आंदोलन चलाया जिससे नस्लीय भेदभाव समाप्त हुआ।

Read More

क्या है मुस्लिम तुष्टिकरण का असली सच? एक विचारोत्तेजक पड़ताल

इस नीति की चपेट में सबसे ज़्यादा वे लोग आये जिन्होंने कालांतर में किन्हीं कारणों से अपना मतांतरण करके मुस्लिम धर्म अपनाया था। जो कभी भी सत्ता और शासन के निकट नहीं रहे या रहने नहीं दिया गया, जिन्हें देशज पसमांदा मुस्लिम के नाम से जानते हैं, जिनकी ज़िन्दगियों में मतांतरण का कोई विशेष लाभ दृष्टिगोचर नहीं होता है और ये अपने पूर्ववर्ती सभ्यता, संस्कृति भाषा एवम् सामाजिक संरचनाओं से जुड़े हुए रहे।

Read More

बंदिश बैंडिट्स का माही – एक समाज की आवाज़ या आवाज़ का बाज़ारीकरण?

एंटी-कास्ट सिनेमा में बहुजन समाज का अनुभव, उनकी जीवन-शैली, संस्कृति केंद्र बिंदु पर होता है जिसे उनकी भाषा, भोजन, भाव-भंगिमा से चित्रित किया जाता है। अंबेडकरवादी विचारधारा को बोलकर नहीं बल्कि उनके कार्यों, निर्णयों, अन्याय के प्रति उनकी सोच में दिखाया जाता है। अंबेडकर, बुद्ध, कबीर, इलयाराजा का संगीत, सावित्री-ज्योतिबा फुले इत्यादि के प्रतीक चिन्ह आपको एंटी-कास्ट पात्र के आस-पास देखने को मिलते हैं जो इंगित करते हैं कि वो समाज की पहचान, इतिहास और संघर्षों के प्रति जागरूक है।

Read More

मुस्लिम समाज को इस्लामी नारीवाद की आवश्यकता क्यों है

आज भी इस्लामी नारीवाद इसी मिशन पर काम कर रहा है। यह क्लासिकल इस्लामी इल्म और आधुनिक नारीवादी सोच दोनों से बातचीत करता है ताकि महिलाओं के हुकूक को बेहतर तरीके से समझा जा सके। सेक्युलर नारीवादी अक्सर इस्लाम को पितृसत्तात्मक मानते हुए उसकी आलोचना करते हैं, लेकिन इस्लामी नारीवादी मज़हब के अंदर रहकर उन तशरीहों को चुनौती देते हैं जो महिलाओं पर ज़ुल्म का सबब बनती हैं। इस्लामी नारीवाद का सबसे अहम पहलू यह है कि यह क़ुरआन के नैतिक उसूलों पर आधारित है। अस्मा बरलास और अमीना वदूद जैसे विद्वानों का मानना है कि क़ुरआन इंसाफ़, बराबरी और इंसानी इज़्ज़त-ओ-तक्रीम (सम्मान) को बढ़ावा देता है। उनका कहना है कि तौहीद (ईश्वर की एकता) का मतलब यह भी है कि किसी इंसान को दूसरे इंसान पर लिंग, नस्ल या जाति के आधार पर हुकूमत करने का हक नहीं है। पितृसत्ता, जो मर्दों को महिलाओं पर प्रभुत्व देती है, तौहीद के उसूल के खिलाफ जाती है।

Read More

डोंट डाई: द मैन हू वांट्स टू लिव फॉरएवर

नेटफ्लिक्स की डॉक्यूमेंट्री “डोंट डाई: द मैन हू वांट्स टू लिव फॉरएवर” देखने के बाद मुझे एक अजीब सा अनुभव हुआ। यह फिल्म ब्रायन जॉनसन नाम के एक अमीर टेक उद्यमी की कहानी है, जो बुढ़ापे और मौत से लड़ने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा रहा है।
जॉनसन साहब की जिंदगी देखकर मुझे लगा कि वो किसी साइंस फिक्शन फिल्म के किरदार हैं। हर दिन वो सैकड़ों गोलियां खाते हैं, अजीब-अजीब मशीनों में घंटों बिताते हैं, और अपने बेटे का प्लाज़्मा भी ले लेते हैं। लेकिन फिर मैंने सोचा कि शायद जॉनसन साहब कुछ ऐसा कर रहे हैं जो हम सब चाहते हैं – लंबी और स्वस्थ जिंदगी जीना। बस फर्क इतना है कि उनके पास करोड़ों रुपये हैं जो वो इस पर खर्च कर सकते हैं।
फिल्म में दिखाया गया कि जॉनसन साहब पहले मोटे और उदास थे। लेकिन अब वो फिट और खुश नजर आते हैं। शायद उनकी कोशिशों का कुछ फायदा हुआ है।

मगर मुझे लगता है कि वो कुछ जरूरी चीजें भूल गए हैं। जैसे परिवार और दोस्तों के साथ वक्त बिताना, जिंदगी का मजा लेना। फिल्म के आखिर में जब उनका बेटा कॉलेज जाता है तो वो रो पड़ते हैं। तब मुझे लगा कि शायद उन्हें अहसास हुआ कि सिर्फ लंबी उम्र काफी नहीं है।
कुल मिलाकर ये फिल्म दिलचस्प थी। इसने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि हम अपनी सेहत का ख्याल कैसे रखें, लेकिन साथ ही जिंदगी का लुत्फ भी उठाएं। मुझे लगता है कि हमें जॉनसन साहब जैसा पागलपन नहीं करना चाहिए, लेकिन उनसे कुछ सीख जरूर ले सकते हैं – जैसे अच्छी नींद लेना, सही खाना खाना और एक्सरसाइज करना।

Read More