लेखक ~अब्दुल्लाह मंसूर
हाल ही में संसद के शीतकालीन सत्र (दिसंबर 2025) के दौरान देश ने एक बार फिर वही पुराना शोर सुना। वंदे मातरम की 150वीं वर्षगांठ के मौके पर गृह मंत्री अमित शाह और विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के बीच तीखी नोक-झोंक हुई। जैसे ही यह बहस संसद से बाहर निकली, जमीयत उलेमा-ए-हिंद और अन्य मुस्लिम संगठनों ने इसे हाथों-हाथ लिया। बयानों की बाढ़ आ गई, फतवों की चर्चा होने लगी और यह कहा जाने लगा कि यह गीत ‘इस्लामी एकेश्वरवाद’ (तौहीद) के खिलाफ है लेकिन, एक आम पसमांदा मुसलमान के तौर पर, जो अपनी रोज़ी-रोटी की जद्दोजहद में लगा है, यह पूरा विवाद एक ‘नूरा-कुश्ती’ से ज़्यादा कुछ नहीं लगता। यह महज जज़्बाती धूल उड़ाने की कोशिश है ताकि असल मुद्दे धुंधले पड़ जाएं। यह विवाद न तो धर्म का है और न ही राष्ट्रभक्ति का; यह विशुद्ध रूप से उस ‘अशराफ़िया सियासत’ (सम्भ्रांतवादी राजनीति) का है, जो पिछले 75 सालों से डर का व्यापार करके अपनी दुकान चला रही है।
पसमांदा बुद्धिजीवी वर्ग इस बात को बखूबी समझता है कि जब-जब कौम के बुनियादी सवालों पर बात होनी चाहिए, तब-तब एक जज़्बाती मुद्दा हवा में उछाल दिया जाता है। अशराफ़ नेतृत्व चाहे वह राजनीतिक हो या धार्मिक यह जानता है कि अगर पसमांदा मुसलमान शिक्षा, रोजगार और हिस्सेदारी की बात करने लगा, तो उनकी ‘सरदारी’ खतरे में पड़ जाएगी। इसलिए, वंदे मातरम का मुद्दा उनके लिए एक संजीवनी बूटी की तरह है, जिससे वे खुद को ‘कौम का ठेकेदार’ साबित करते रहते हैं।
इतिहास, सियासत और ‘भारत माता’ से परहेज़ का मनोविज्ञान
इस विवाद की तह तक जाने के लिए हमें थोड़ा पीछे मुड़कर देखना होगा। यह सच है कि ‘वंदे मातरम’ बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘आनंदमठ’ का हिस्सा है। मुस्लिम समाज के एक बड़े तबके को उपन्यास की पृष्ठभूमि और गीत के कुछ हिस्सों में मूर्तिपूजा के भाव को लेकर आपत्ति रही है। इस्लाम की बुनियादी शिक्षा एकेश्वरवाद है, जो ईश्वर के अलावा किसी और की इबादत की इजाज़त नहीं देती लेकिन क्या यह मुद्दा इतना उलझा हुआ था जिसे सुलझाया न जा सके?
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे मनीषी शामिल थे इस संवेदनशीलता को बहुत पहले ही समझ लिया था। इसी समझ के आधार पर 1937 में एक ऐतिहासिक और तार्किक फैसला लिया गया। यह तय हुआ कि ‘वंदे मातरम’ के केवल शुरुआती दो अंतरों (Stanzas) को ही राष्ट्रगीत के रूप में अपनाया जाएगा। इन पंक्तियों में किसी देवी-देवता की स्तुति नहीं, बल्कि अपनी मातृभूमि की प्राकृतिक सुंदरता, उसकी नदियों, हवाओं और लहलहाते खेतों का वंदन है। ’वंदे’ शब्द का अर्थ केवल पूजा नहीं होता, इसका अर्थ गहरा सम्मान, आदर और तस्लीम (अभिवादन) भी होता है। मौलाना आज़ाद जैसे विद्वान भी इसे अच्छी तरह समझते थे। लेकिन आज़ादी के बाद भी इस मुद्दे को बार-बार क्यों कुरेदा गया? इसका जवाब अशराफ़ वर्ग की मानसिकता में छिपा है।
मुस्लिम समाज का नेतृत्व करने वाला अशराफ़ वर्ग (सैयाद, शेख, मुगल, पठान आदि) खुद को विदेशी आक्रमणकारियों या मध्यकालीन शासकों का वंशज मानता है। उनका मनोविज्ञान इस मिट्टी से ‘जुड़ाव’ का नहीं, बल्कि इस पर ‘राज’ करने वाले का रहा है। एक शासक विजित भूमि (Conquered Land) को अपनी ‘जागीर’ समझता है, उसे ‘मां’ का दर्जा देने में उसे हिचकिचाहट होती है। यही वजह है कि उन्होंने ‘भारत माता’ की अवधारणा को कभी दिल से स्वीकार नहीं किया। इसके ठीक उलट, पसमांदा मुसलमान इसी धरती का मूल निवासी है। उसके पुरखे यहीं के हैं, उसका खून-पसीना इसी मिट्टी में मिला है। उसके लिए धरती को ‘मां’ कहना या उसका सम्मान करना कोई धार्मिक संकट नहीं है। लेकिन अशराफ़ नेतृत्व ने अपनी ‘विदेशी पहचान’ के अहंकार को ‘इस्लाम के खतरे’ में लपेटकर आम पसमांदा मुसलमानों को गुमराह किया।

इस दोहरेपन का सबसे बड़ा उदाहरण अल्लामा इक़बाल हैं, जिन्हें यही उलेमा और नेता अपना नायक मानते हैं। इक़बाल अपनी नज़्म ‘नया शिवाला’ में साफ लिखते हैं:
“पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है, खाक-ए-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है।“
सोचने वाली बात है कि जब इक़बाल वतन की मिट्टी के कण-कण को ‘देवता’ कहते हैं, तो किसी उलेमा ने उन पर कुफ्र का फतवा नहीं लगाया? उन्हें तो सिर आंखों पर बिठाया गया। लेकिन जब वही भावना ‘वंदे मातरम’ के जरिए आती है, तो अचानक ‘ईमान खतरे में’ कैसे आ जाता है? यह विरोधाभास साबित करता है कि विरोध ‘शब्दों’ से नहीं, बल्कि उस ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ से है जो मुसलमानों को मुख्यधारा में शामिल होने का रास्ता देता है। अशराफ़ नेतृत्व चाहता है कि मुसलमान हमेशा ‘अलग’ दिखे, ताकि उनकी ‘अलग राजनीति’ की दुकान चलती रहे।
जज़्बात का खेल और पसमांदा के असल मुद्दे
आज सबसे बड़ा सवाल उलेमाओं और मुस्लिम संगठनों की भूमिका पर खड़ा होता है। देखा गया है कि जैसे ही कोई भावनात्मक मुद्दा चाहे वह ‘वंदे मातरम’ हो, कोई फिल्म हो या कोई कार्टून सामने आता है, तो फतवों की मशीनें तेज़ हो जाती हैं। टीवी डिबेट्स में मौलानाओं की कतारें लग जाती हैं और सड़कों पर भीड़ जमा कर ली जाती है। लेकिन एक पसमांदा होने के नाते हमें अपने इन रहनुमाओं से कुछ कड़वे सवाल पूछने होंगे कि जब बात हमारे वजूद, तरक्की और पेट की आग की होती है, तब यह सारी सक्रियता कहाँ गायब हो जाती है? आखिर क्यों जज़्बाती मुद्दों पर आसमान सिर पर उठाने वाला नेतृत्व हमारे जीवन से जुड़े असली सवालों पर खामोश हो जाता है?

शिक्षा और रोज़गार की स्थिति को देखें तो सच्चर कमेटी से लेकर आज तक के तमाम आँकड़े चीख-चीख कर कह रहे हैं कि मुस्लिम समाज, और उसमें भी खासतौर पर पसमांदा तबका, शिक्षा में सबसे पिछड़ा हुआ है। हमारे यहाँ स्कूल ड्रॉप-आउट दर सबसे ज़्यादा है, मगर अफ़सोस कि कभी किसी बड़े मौलाना ने जुमे की नमाज़ के बाद यह फतवा जारी नहीं किया कि “जो अपने बच्चे को स्कूल नहीं भेजेगा, वह सच्चा मुसलमान नहीं है।” मस्जिदों के मिंबर से कभी ‘स्कूल चलो अभियान’ नहीं चलाया गया। अगर गानों पर फतवे आ सकते हैं, तो अनपढ़ रहने पर क्यों नहीं? यही हाल रोज़गार का है; सरकारी नौकरियों और प्रशासन में हमारी हिस्सेदारी न के बराबर है। हमारा युवा आज भी पंचर बनाने, वेल्डिंग करने या नाई की दुकान चलाने तक सीमित है। अशराफ़ नेताओं ने जानबूझकर कभी हमारे लिए ‘स्किल डेवलपमेंट’ की बात नहीं की, क्योंकि वे जानते हैं कि अगर पसमांदा का बेटा पढ़-लिख कर अफसर बन गया, तो फिर इनकी दरी बिछाने और ज़िंदाबाद के नारे लगाने के लिए भीड़ कौन जुटाएगा?
इस सियासत का सबसे घिनौना चेहरा तब सामने आता है जब ‘दीन खतरे में है’ का नारा देकर हमारे युवाओं को कट्टरपंथ की आग में झोंका जाता है। हमारे बच्चों को सड़कों पर उतरने के लिए उकसाया जाता है, जिसका नतीजा यह होता है कि दंगों या पुलिस केस में फंसकर जेल जाने वाला बच्चा हमेशा एक गरीब पसमांदा परिवार का होता है। जबकि विडंबना देखिए कि उन्हें भड़काने वाले नेताओं और उलेमाओं के बच्चे विदेशों में, ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज में सुकून की ज़िंदगी जीते हैं और आला तालीम हासिल करते हैं। आखिर इस ‘बलि का बकरा’ बनाने वाली राजनीति पर सामाजिक बहिष्कार का प्रस्ताव क्यों नहीं आता? हमें यह समझना होगा कि हमारा असली जिहाद (संघर्ष) किसी गीत के खिलाफ नहीं, बल्कि उस जहालत, गरीबी और मानसिक गुलामी के खिलाफ होना चाहिए, जिसने हमें सिर्फ एक ‘वोट बैंक’ बनाकर रख दिया है।
पिछले 75 सालों की ‘अलगाव की राजनीति’ ने मुस्लिम समाज को मुख्यधारा से काटकर अलग-थलग कर दिया है। बार-बार यह अहसास दिलाया गया कि राष्ट्रवाद तुम्हारे खिलाफ है। इसका नतीजा यह हुआ कि हमारी पूरी ऊर्जा, हमारा पैसा और हमारा वक्त मुकदमों, बहसों और प्रतीकात्मक लड़ाइयों में ज़ाया हो गया। आज का युवा मुसलमान विशेषकर पसमांदा युवा इस बासी राजनीति से ऊब चुका है। उसे अब फतवों से ज़्यादा ‘फेलोशिप’ की ज़रूरत है, नारों से ज़्यादा ‘नौकरी’ की दरकार है और विवादों से ज़्यादा ‘विकास’ की भूख है।

हमारा संविधान हमें अपनी आस्था का पालन करने की पूरी आज़ादी देता है। ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गीत है, राष्ट्रगान (National Anthem) नहीं। ‘जन गण मन’ को मुसलमान हमेशा से पूरे सम्मान के साथ गाते आए हैं और गाते रहेंगे। किसी को ज़बरदस्ती कोई गीत गाने के लिए मजबूर करना न तो संवैधानिक है और न ही किसी लोकतांत्रिक देश की सेहत के लिए अच्छा है। देशभक्ति का सबूत किसी एक गीत को गाने या न गाने से तय नहीं हो सकता लेकिन, अब समय आ गया है कि हम अशराफ़ नेतृत्व की इस ‘ब्लैकमेलिंग’ को खारिज करें। वे चाहते हैं कि हम वंदे मातरम पर उलझे रहें ताकि हम उनसे यह न पूछ सकें कि हमारे हिस्से की नौकरियां कहां हैं? पसमांदा समाज को अपनी प्राथमिकताएं खुद तय करनी होंगी। वंदे मातरम का सम्मान किया जा सकता है, लेकिन इसे हमारी तरक्की की राह का रोड़ा नहीं बनने देना चाहिए। सच्ची देशभक्ति और सच्चा दीन वही है जो हमारे बच्चों को एक महफूज़ और बेहतर भविष्य दे। बाकी सब सियासत है और इतिहास गवाह है कि उस सियासत का सबसे बड़ा नुकसान हमेशा पसमांदा मुसलमानों ने ही उठाया है।
अब्दुल्लाह मंसूर, एक लेखक और पसमांदा बुद्धिजीवी हैं। वे ‘पसमांदा दृष्टिकोण’ से लिखते हुए, मुस्लिम समाज में जाति के प्रश्न और सामाजिक न्याय पर केंद्रित हैं।