~डॉ. उज्मा खातून
इस्लामी स्टडीज़ विभाग, एएमयू
मुस्लिम समाज में इस्लामी नारीवाद की अहमियत पर बात करना आज के दौर में बेहद ज़रूरी है। यह एक ऐसा आंदोलन है, जो औरतों और मर्दों के बीच बराबरी, इंसाफ़ और हुकूक की बहाली की बात करता है।इस्लामी नारीवाद का मक़सद क़ुरआन और हदीस की उन तशरीहों (व्याख्याओं) को चुनौती देना है, जो पितृसत्तात्मक सोच से प्रभावित होकर औरतों के हुकूक को दबाती हैं। यह आंदोलन इस बात पर जोर देता है कि इस्लाम की असल तालीमात में मर्द और औरत दोनों को बराबर का दर्जा दिया गया है।
इस्लामी नारीवाद यह साफ़ करता है कि जो भेदभाव औरतों के साथ किया जाता है, वह मज़हबी नहीं बल्कि समाजी रवायतों (परंपराओं) का नतीजा है। क़ुरआन और हदीस में मौजूद इंसाफ़ और बराबरी के उसूलों को सही तरीके से समझने और लागू करने की ज़रूरत है। इस आंदोलन ने कई मुस्लिम देशों में क़ानूनी और समाजी सुधार लाने में मदद की है। ईरान और मोरक्को जैसे देशों में पारिवारिक कानूनों में बदलाव इसी की मिसाल हैं। इस्लामी नारीवाद का मक़सद यह भी है कि मज़हब और रवायत के बीच फर्क को समझा जाए। बहुत सी बातें, जिन्हें आज इस्लाम का हिस्सा समझा जाता है, दरअसल समाजी रवायतें हैं, जिनका मज़हब से कोई ताल्लुक नहीं। यह आंदोलन इन रवायतों को चुनौती देकर औरतों के हुकूक को मज़बूत करने की कोशिश करता है।
इस्लामी नारीवाद का उद्देश्य महिलाओं के अधिकारों को इस्लामी संस्कृति के भीतर संरक्षित करना है। यह विश्वास और सांस्कृतिक प्रथाओं के बीच अंतर स्पष्ट करता है, ताकि महिलाओं को उनके धार्मिक अधिकारों से वंचित न किया जाए। प्रमुख इस्लामी नारीवादी विद्वान, जैसे अस्मा बरलास और अमीना वदूद, कुरान की नैतिक दृष्टि पर जोर देते हैं। वे तौहीद (अल्लाह की एकता) और तक़वा (ईश्वर-चेतना) जैसे मूल सिद्धांतों को लैंगिक न्याय का आधार मानते हैं। तौहीद का मतलब है कि किसी भी इंसान को लिंग, जाति या वर्ग के आधार पर दूसरे पर प्रभुत्व का अधिकार नहीं है। इसलिए, पितृसत्ता इस्लाम के मूलभूत सिद्धांतों का उल्लंघन करती है।तक़वा कुरान में समानता का एक अन्य महत्वपूर्ण संदेश है। कुरान (49:13) कहता है कि श्रेष्ठता केवल तक़वा के आधार पर होती है, जो सभी के लिए समान रूप से सुलभ है। तक़वा (ईश्वर-चेतना) भी इसी नैतिक ढांचे का हिस्सा है। क़ुरआन कहता है कि किसी इंसान की श्रेष्ठता केवल उसकी तक़वा पर आधारित हो सकती है, न कि उसके लिंग पर। यह संदेश साफ तौर पर बताता है कि मर्द-औरत दोनों बराबर हैं, और तक़वा ही वह पैमाना है जिससे इंसान को आंका जाना चाहिए।
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इस नैतिक दृष्टिकोण से प्रेरित होकर, इस्लामी नारीवादी पारंपरिक व्याख्याओं की आलोचना करते हैं, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को हाशिए पर रखा है। उदाहरण के लिए, विवाह और तलाक के कानून अक्सर पुरुषों को प्राथमिकता देते हैं, जबकि कुरान इन मामलों में न्याय और निष्पक्षता पर जोर देता है। अस्मा बरलास का मानना है कि ये पारंपरिक व्याख्याएँ उस समय की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों से प्रभावित थीं और इन्हें कुरान के व्यापक नैतिक सिद्धांतों के आलोक में पुनः मूल्यांकित किया जा सकता है। इस्लामी नारीवाद कोई नया खयाल नहीं है। इसकी शुरुआत 20वीं सदी में हुई, जब मुस्लिम ख़वातीन ने अपने समाज में ज़्यादा हुकूक और बराबरी की मांग शुरू की। यह पश्चिमी नारीवादी आंदोलनों का जवाब नहीं था, बल्कि इसका मक़सद इस्लाम की शुरुआती तालीमात में मौजूद बराबरी के उसूलों को फिर से ज़िंदा करना था। फ़ातिमा मर्निसी जैसी विद्वानों ने इस बात पर जोर दिया कि किस तरह पितृसत्तात्मक ढांचे ने इस्लामी तालीमात को तोड़-मरोड़ कर पेश किया ताकि मर्दाना वर्चस्व कायम रखा जा सके।
आज भी इस्लामी नारीवाद इसी मिशन पर काम कर रहा है। यह क्लासिकल इस्लामी इल्म और आधुनिक नारीवादी सोच दोनों से बातचीत करता है ताकि महिलाओं के हुकूक को बेहतर तरीके से समझा जा सके। सेक्युलर नारीवादी अक्सर इस्लाम को पितृसत्तात्मक मानते हुए उसकी आलोचना करते हैं, लेकिन इस्लामी नारीवादी मज़हब के अंदर रहकर उन तशरीहों को चुनौती देते हैं जो महिलाओं पर ज़ुल्म का सबब बनती हैं। इस्लामी नारीवाद का सबसे अहम पहलू यह है कि यह क़ुरआन के नैतिक उसूलों पर आधारित है। अस्मा बरलास और अमीना वदूद जैसे विद्वानों का मानना है कि क़ुरआन इंसाफ़, बराबरी और इंसानी इज़्ज़त-ओ-तक्रीम (सम्मान) को बढ़ावा देता है। उनका कहना है कि तौहीद (ईश्वर की एकता) का मतलब यह भी है कि किसी इंसान को दूसरे इंसान पर लिंग, नस्ल या जाति के आधार पर हुकूमत करने का हक नहीं है। पितृसत्ता, जो मर्दों को महिलाओं पर प्रभुत्व देती है, तौहीद के उसूल के खिलाफ जाती है।
इस्लामी नारीवादी उन पारंपरिक कानूनों की आलोचना करते हैं जो महिलाओं को शादी, तलाक या विरासत जैसे मामलों में नुकसान पहुंचाते हैं। क्लासिकल फुकहा (इस्लामी विद्वानों) ने क़ुरआन के नैतिक संदेशों को पहचानने के बावजूद इन्हें हमेशा अपने फैसलों में शामिल नहीं किया। शादी और तलाक से जुड़े कई कानून मर्दों को प्राथमिकता देते हैं जबकि क़ुरआन इन मामलों में इंसाफ़ और बराबरी पर जोर देता है। अमीना वदूद कहती हैं कि क़ुरआन की तफ्सीर करते वक्त इसके नैतिक मकसद को प्राथमिकता दी जानी चाहिए बजाय इसके कि केवल शब्दों के ज़ाहिरी मतलब पर जोर दिया जाए। उनका मानना है कि क़ुरआन की नैतिक शिक्षाओं को मौजूदा दौर के मसलों पर लागू करना ज़रूरी है ताकि इंसाफ़ और बराबरी हासिल हो सके।
इस्लामी नारीवाद कानूनी सुधार लाने की भी कोशिश करता है ताकि महिलाओं को उनके हुकूक दिए जा सकें। बहुत से मुस्लिम देशों में लागू कानून पितृसत्तात्मक व्याख्याओं पर आधारित होते हैं जो महिलाओं को शादी, तलाक या विरासत जैसे मामलों में नुकसान पहुंचाते हैं। बहुत से देशों में मर्दों को शादी या तलाक जैसे मामलों में ज्यादा अधिकार दिए गए हैं जबकि महिलाएँ इन मामलों में सीमित अधिकार रखती हैं। इसी तरह विरासत के मामले में भी महिलाएँ अक्सर नुकसान उठाती हैं क्योंकि उन्हें कम हिस्सा दिया जाता है। इस्लामी नारीवादी कहते हैं कि ये कानून क़ुरआन की न्यायप्रियता वाली शिक्षाओं से मेल नहीं खाते।
कानूनी सुधारों के साथ-साथ सामाजिक बदलाव भी उतना ही अहम हिस्सा है इस आंदोलन का।पितृसत्तात्मक रवायतों को चुनौती देकर यह आंदोलन ऐसा समाज बनाने की कोशिश करता है जहां महिलाएँ हर क्षेत्र में बराबरी से हिस्सा ले सकें।हालांकि इस्लामी नारीवाद एक मजबूत आंदोलन बनकर उभरा है, इसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। कुछ लोग इसे पश्चिमी विचारधारा मानते हुए खारिज कर देते हैं जबकि कुछ इसे मजहब से बाहर का खयाल बताते हैं। यास्मीन मोल जैसी विद्वान कहती हैं कि इस्लामी नारीवादी आधुनिक विचारधाराओं को अपनाते हुए क्लासिकल इस्लामिक इल्म से गहराई से जुड़ने में विफल रहते हैं।
इन तमाम चुनौतियों के बावजूद इस्लामी नारीवाद मुस्लिम समाज में लैंगिक न्याय लाने वाला एक अहम आंदोलन बना हुआ है। इसकी सबसे बड़ी ताकत यह है कि यह मजहब के अंदर रहकर बदलाव लाने की कोशिश करता है बजाय इसके कि इसे बाहर से प्रभावित किया जाए। यह आंदोलन सिर्फ महिलाओं तक सीमित नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है क्योंकि जहां बराबरी होगी वहां तरक्की भी होगी।
मुस्लिम समाज में इस्लामी नारीवाद की जरूरत बेहद अहमियत रखती है क्योंकि यह न्याय, समानता और समावेशिता जैसे मूल्यों पर आधारित एक बेहतर समाज बनाने की कोशिश करता है। यह आंदोलन हमें याद दिलाता है कि इस्लाम अपनी असल रूह में इंसाफपरस्त मजहब रहा है जो हर इंसान—चाहे वह मर्द हो या महिला—को बराबर दर्जा देता है।
डॉ. उज्मा खातून अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से पीएचडी कर चुकी हैं और 2017-18 तक वहां पढ़ाया था।