लेखक ~अब्दुल्लाह मंसूर
मुफ्ती शमाइल नदवी और जावेद अख्तर के बीच ईश्वर के होने या न होने को लेकर हुई बहस ने बहुतों का ध्यान खींचा। यह बहस दुनिया को देखने के दो अलग-अलग नजरियों की टक्कर थी। एक तरफ वह सोच है जो अनदेखी सच्चाई पर भरोसा करती है, और दूसरी तरफ वह जो हर बात के लिए ठोस सबूत मांगती है। मुफ्ती साहब ने अपनी बात आस्था के आधार पर रखी। उनका कहना था कि यह दुनिया इतनी बड़ी और व्यवस्थित है कि यह अपने आप नहीं बन सकती। जैसे कोई भी छोटी चीज बिना बनाने वाले के अस्तित्व में नहीं आती, वैसे ही यह पूरी कायनात भी किसी ‘बनाने वाले’ की कारीगरी है। जब उनसे दुनिया के दुखों और बुराइयों पर सवाल किया गया, तो उन्होंने इसे ईश्वर की ऐसी गहरी समझ बताया जिसे इंसान की छोटी अकल नहीं समझ सकती। उनके लिए ईश्वर एक ऐसी तार्किक जरूरत है, जिसके बिना सृष्टि की शुरुआत को नहीं समझाया जा सकता।
दूसरी तरफ, जावेद अख्तर ने इंसान की अकल और तर्कों को आधार बनाया। उनका कहना था कि जो चीज दिखाई नहीं देती, उसे सच मानने के लिए बहुत मजबूत सबूत चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि ईश्वर को साबित करने की जिम्मेदारी उन पर है जो उसे मानते हैं। जावेद साहब ने दुनिया में मासूम बच्चों की तकलीफों और नाइंसाफी का हवाला देते हुए पूछा कि अगर ईश्वर वाकई दयालु और शक्तिशाली है, तो दुनिया में इतना दर्द क्यों है? उनके हिसाब से धर्म और नैतिकता दरअसल इंसानों ने ही बनाई है ताकि समाज को अनुशासन में रखा जा सके। यह बहस कभी न खत्म होने वाली है क्योंकि ईश्वर को न तो प्रयोगशाला में साबित किया जा सकता है और न ही केवल बातों से नकारा जा सकता है। जब तक इंसान के मन में मौत का डर और दुनिया को जानने की बेचैनी रहेगी, तब तक लोग ईश्वर को तलाशते रहेंगे। वहीं, जब तक दुनिया में जुल्म और नाइंसाफी रहेगी, तब तक तर्क करने वालों के सवाल भी कायम रहेंगे।
कैरन आर्मस्ट्रांग कहती हैं कि ईश्वर को विज्ञान या गणित के तराजू पर तौलना ही सबसे बड़ी गलती है। ईश्वर कोई ऐसी ‘वस्तु’ नहीं है जिसे हम अपनी भाषा में बांध सकें। पुराने समय में धर्म का मतलब सिर्फ किसी बात को मान लेना नहीं था, बल्कि वह एक अभ्यास था। जैसे आप संगीत सुनकर उसे महसूस करते हैं, उसे तर्कों से सिद्ध नहीं करते, ईश्वर भी वैसी ही एक अनुभूति है। समाज में टकराव इसलिए है क्योंकि हमने सिर्फ विज्ञान और तर्क को ही एकमात्र सच मान लिया है और जीवन के गहरे अर्थों को भुला दिया है। धर्म का असली काम जानकारी देना नहीं, बल्कि जीवन के दुखों और परेशानियों के बीच इंसान को जीने का सहारा और मकसद देना है।यहाँ एक बात समझना ज़रूरी है कि किसी विचार की मानवीय ज़रूरत और उसका वस्तुगत सत्य एक जैसी चीज़ें नहीं होतीं। यह संभव है कि ईश्वर को तर्क से साबित न किया जा सके, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इंसान को अर्थ, आश्वासन और सहारे की ज़रूरत हमेशा महसूस होती है। यही अंतर इस बहस को उलझाता भी है और ज़िंदा भी रखता है।
इतिहास में जैसे-जैसे विज्ञान आगे बढ़ा, ईश्वर को लेकर इंसान की सोच बदलती गई। पहले जब हम बारिश, बीमारी या बिजली कड़कने का कारण नहीं जानते थे, तो उसे ईश्वर का चमत्कार मान लेते थे। विज्ञान ने इन रहस्यों को सुलझा दिया, जिससे ईश्वर का वह पुराना रूप कई लोगों के लिए बेमानी हो गया जो सिर्फ डर या चमत्कार पर टिका था। लेकिन विज्ञान हमें यह तो बता सकता है कि ब्रह्मांड कैसे बना, पर यह नहीं बता सकता कि क्यों बना। आज की सुख-सुविधाओं के बावजूद इंसान के मन में एक खालीपन है। मौत और दुख के सामने आज भी विज्ञान खामोश है। यहाँ आकर इंसान को फिर से एक ऐसी शक्ति या विचार की जरूरत पड़ती है जो इस भौतिक दुनिया से परे हो।
भविष्य में ईश्वर की पहचान किसी मंदिर या मस्जिद की चारदीवारी के बजाय इंसान की अपनी चेतना में खोजी जाएगी। जैसा कि सूफियों और संतों ने कहा है—ईश्वर बाहर कहीं नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर की गहराई है। आने वाले समय का इंसान शायद ध्यान और चिंतन के जरिए उस ईश्वरीय तत्व को महसूस करेगा। साथ ही, जैसे-जैसे मशीनी दौर बढ़ेगा, इंसानियत को बचाने के लिए हमें फिर से उन्हीं मूल्यों यानी दया, न्याय और प्रेम की तरफ लौटना होगा जिन्हें धर्मों ने ईश्वर के गुण बताया था। ईश्वर कोई बंद गली नहीं, बल्कि एक प्रक्रिया है। जैसे-जैसे इंसान की समझ बढ़ेगी, वह पुरानी रूढ़ियों को छोड़ता जाएगा और सच्चाई को नए तरीके से समझेगा। ईश्वर स्वयं को हर इंसान की समझ के अनुसार प्रकट करता है। विज्ञान और तर्क जरूरी हैं, लेकिन वे इंसान की रूहानी और भावनात्मक जरूरतों को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सकते। मुश्किल वक्त में हमें सिर्फ तथ्यों की नहीं, बल्कि एक ऐसे भरोसे की जरूरत होती है जो हमें अकेलेपन से लड़ने की ताकत दे।
इतिहास गवाह है कि जब भी धर्म या विज्ञान सत्ता के हाथों में औज़ार बने हैं, उनका इस्तेमाल इंसान को आज़ाद करने के बजाय नियंत्रित करने के लिए हुआ है। धर्म ने सत्ता को पवित्रता दी और विज्ञान ने उसे ताक़त। नतीजा यह हुआ कि सवाल पूछने वाला इंसान दोनों जगह संदिग्ध बन गया। असली समस्या धर्म या विज्ञान में नहीं है, बल्कि उनके गलत इस्तेमाल में है। विज्ञान ने परमाणु की समझ दी, पर इंसानों ने बम बना लिए। मशीनों ने तरक्की दी, पर लालच ने बेरोजगारी फैला दी। हमें यह भी समझना होगा कि एक अच्छा और नैतिक समाज बनाने के लिए सिर्फ ईश्वर को मानना ही काफी नहीं है। ऐसी कई परंपराएं हैं जैसे बौद्ध, जैन ईश्वर की संकल्पना को को नहीं मानतीं, फिर भी उन्होंने दुनिया को बहुत ऊंचे नैतिक मूल्य दिए हैं। लब्बोलुआब यह है कि असली लड़ाई यह नहीं है कि ईश्वर है या नहीं, बल्कि लड़ाई यह है कि चाहे विज्ञान हो या धर्म वह इंसानियत और न्याय के काम आ रहा है या नहीं?