लेखक : फैयाज़ अहमद फ़ैज़ी
आसिम बिहारी का जन्म शिक्षा और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय से लगे खासगंज, बिहार शरीफ के एक देशभक्त परिवार में हुआ था. उनके दादा मौलाना अब्दुर्रहमान ने 1857 की क्रांति के झंडे को बुलंद किया था. आसिम बिहारी का असल नाम अली हुसैन था.
बिहारी को रोजी की तलाश में कोलकाता जाना पड़ा और वहीं से उन्होंने अपना संघर्ष शुरू किया. उन्होंने बीड़ी मज़दूर साथियों की एक टीम तैयार कर, ‘दारुल मुज़ाकरा ‘ (चर्चा गृह/वार्तालाप शाला) नामक एक अध्यन केंद्र की स्थापना की, जहां राष्ट्र और समाज के मुद्दे पर लेख लिख कर सुनाना और उस पर परिचर्चा करना रोज का काम था.
आसिम बिहारी ने 22 साल की उम्र में प्रौढ़ शिक्षा के लिए एक पंचवर्षीय (1912-1917) योजना शुरू की. 1914 में मात्र 24 साल की आयु में अपने वतन नालंदा में बज़्म-ए-अदब (साहित्य सभा) नामक संस्था की स्थापना की जिसके अंतर्गत एक पुस्तकालय भी संचालित किया.
बिहारी ने 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद जब लाला लाजपत राय, मौलाना आज़ाद आदि नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, तो उन नेताओं की रिहाई के लिए एक राष्ट्रव्यापी पत्राचारिक विरोध शुरू किया, जिसमें पूरे देश के हर जिले, कस्बे, मोहल्ले, गांव, देहात से लगभग डेढ़ लाख पत्र और टेलीग्राम भारत के वायसराय और रानी विक्टोरिया को भेजा गया. आखिरकार मुहीम कामयाब हुई और सारे स्वतंत्रता सेनानी जेल से बाहर आये.
1920 में उन्होंने तांती बाग, कोलकाता में ‘जमीयतुल मोमिनीन ‘ (मोमिन कांफ्रेंस) नामक संगठन बनाया, जिसका पहला अधिवेशन 10 मार्च 1920 को सम्पन्न हुआ. अप्रैल, 1921 में दिवारी अखबार ‘अलमोमिन ‘ की परंपरा की शुरुआत की, जिसमें बड़े-बड़े कागज पर लिख कर उसे दीवार पर चिपकाया जाता था. 1923 से दिवारी अखबार एक पत्रिका ‘अलमोमिन ‘ के रूप में प्रकाशित होने लगा
गांधी से सहायता लेने से किया इनकार
10 दिसंबर 1921 को तांतीबाग कोलकाता में एक अधिवेशन का आयोजन किया गया जिसमें महात्मा गांधी ने भी भाग लिया. गांधी ने कांग्रेस पार्टी की कुछ शर्तों के साथ एक लाख रूपये की बड़ी रकम संगठन को देने का प्रस्ताव रखा लेकिन उन्होंने आंदोलन के शुरू में ही संगठन को किसी प्रकार की राजनैतिक बाध्यता और समर्पण से दूर रखना ज्यादा उचित समझा और एक लाख की बड़ी आर्थिक सहायता, जिसकी संगठन को अत्यधिक आवश्यकता थी, स्वीकार करने से इनकार कर दिया.
1922 के शुरू में संगठन को अखिल भारतीय रूप देने के इरादे से आसिम बिहारी पूरे भारत के गांव, कस्बे और शहर के भ्रमण पर निकल पड़े, जिसकी शुरुआत बिहार से की गई. लगभग छह महीने के लगातार दौरों के बाद 3-4 जून 1922 को नालंदा में एक प्रदेश स्तर का सम्मेलन आयोजित किया गया.
समाज को मुख्यधारा में लाने का जुनून
9 जुलाई 1923 को मदरसा मोइनुल इस्लाम, सोहडीह, बिहार शरीफ, जिला नालंदा, बिहार में संगठन (जमीयतुल मोमिनीन) की एक स्थानीय बैठक आयोजित की गई थी. ठीक उसी दिन आसिम बिहारी के बेटे कमरुद्दीन जिसकी उम्र मात्र 6 महीने 19 दिन थी, की मृत्यु हो गयी. मगर समाज को मुख्यधारा में लाने के जुनून का यह आलम था कि अपने प्रिय पुत्र के पार्थिव शरीर को छोड़ कर तय समय पर बैठक में पहुंच कर लगभग एक घंटे तक समाज के दशा और दिशा पर निहायत ही प्रभावशाली भाषण दिया.
अगस्त, 1924 में कुछ चुने हुए समर्पित लोगों की ठोस तरबियत के लिए ‘मजलिस-ए-मिसाक़ ‘ (प्रतिज्ञा प्रकोष्ठ) नामक एक कोर कमिटी की बुनियाद डाली. 6 जुलाई, 1925 को ‘मजलिस-ए-मिसाक़ ‘ ने अल इकराम नामक एक पाक्षिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. वहीं 1926 में दारुत्तरबियत (प्रशिक्षण शाला) नामक शिक्षण संस्था और पुस्तकालय का एक जाल फैलाना शुरू कर दिया.
बुनकरी के काम को संगठित और मजबूत बनाने के लिए भारत सरकार की संस्था कॉपरेटिव सोसाइटी से भरपूर मदद लेने के लिए 26 जुलाई 1927 को ‘बिहार वीवर्स एसोसिएशन ‘ बनाया, जिसकी ब्रांच कोलकाता सहित देश के अन्य शहरों में भी खोली गई.
बिहार के बाद अन्य राज्यों की तरफ रुख
1927 में बिहार को संगठित करने के बाद, आसिम बिहारी ने यूपी का रुख किया. उन्होंने गोरखपुर, बनारस, इलाहाबाद, मुरादाबाद, लखीमपुर-खीरी और अन्य दूसरे जनपदों का तूफानी दौरा किया. यूपी के बाद दिल्ली और पंजाब के इलाके में भी उन्होंने संगठन को खड़ा कर दिया.
18 अप्रैल 1928 को कोलकाता में पहला आल इंडिया स्तर का भव्य सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें हज़ारों लोग शामिल हुए.
मार्च 1929 में दूसरा ऑल इंडिया सम्मेलन इलाहाबाद में, तीसरा अक्टूबर 1931 दिल्ली में, चौथा लाहौर, पांचवां नवंबर 1932 में गया में आयोजित किया गया.
गया के सम्मेलन में संगठन का महिला विभाग भी वजूद में आ गया. खालिदा खातून, जैतून असगर, बेगम मोइना गौस आदि महिला प्रभाग के प्रमुख नाम हैं. इसके अतिरिक्त छात्र और नवयुवकों के लिए ‘मोमिन नौवजवान कांफ्रेंस ‘ की भी स्थापना की गई, साथ ही ‘मोमिन स्काउट ‘ भी कदमताल कर रही थी.
इस प्रकार मुंंबई, नागपुर, हैदराबाद, चेन्नई यहां तक कि श्रीलंका और वर्मा में भी संगठन खड़ा हो गया और जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कांफ्रेंस) आल इंडिया से ऊपर उठकर एक अंतरराष्ट्रीय संगठन बन गया. कानपुर से एक हफ्तावार पत्रिका ‘मोमिन गैज़ेट ‘ का भी प्रकाशन किया जाने लगा.
पसमांदा जातियों को जागरूक, सक्रिय और संगठित किया
बिहारी की शुरू से ये कोशिश रही कि बुनकर के अलावा अन्य दूसरे पसमांदा जातियों को भी जागरूक, सक्रिय और संगठित किया जाए. उन्होंने 16 नवंबर 1930 को सभी पसमांदा जातियों का एक संयुक्त राजनैतिक दल ‘मुस्लिम लेबर फेडरेशन ‘ नाम से बनाने का प्रस्ताव इस शर्त के साथ रखा कि मूल संगठन का सामाजिक आंदोलन प्रभावित ना हो.
17 अक्टूबर 1931 को उस समय के सभी पसमांदा जातियों के संगठनों पर आधारित एक संयुक्त संगठन ‘बोर्ड ऑफ मुस्लिम वोकेशनल एंड इंडस्ट्री क्लासेज ‘ की स्थापना की गई और सर्वसम्मति से उसके संरक्षक बनाये गए.
वो चुनावी राजनीति को जल्दी कामयाबी का शॉर्टकट रास्ता मानते थे और सामाजिक जागरूकता को वरीयता देना ज्यादा उचित समझते थे. फिर भी 1936-37 के चुनाव में कार्यकर्ताओं ने कई सीट पर जीत भी दर्ज की.
उन्होंने चुनावी राजनीति में कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों से बराबर दूरी बनाए रखने की नीति अपनाई. एक भाषण में उन्होंने कहा था, ‘हमारे मर्ज़ का इलाज ना लीग है ना कांग्रेस…सच तो यह है कि हमारे मर्ज का इलाज खुद हमारे अपने हाथों में है, यह इलाज हमारी ‘कांफ्रेंस (संगठन)’ है.’
आमतौर से मौलाना का भाषण लगभग दो से तीन घंटे का हुआ करता था लेकिन 13 सितंबर 1938 को कन्नौज में दिया गया पांच घंटे का भाषण और 25 अक्टूबर 1934 को कोलकाता में दिया गया पूरी रात का भाषण मानव इतिहास का एक अभूतपूर्व कीर्तिमान है.
भारत छोड़ो आंदोलन में भी मौलाना ने अपनी सक्रिय भूमिका निभायी.
1940 में देश के बंटवारे के विरोध में उन्होंने दिल्ली में एक विरोध प्रदर्शन आयोजित करवाया जिसमें लगभग चालीस हजार की संख्या में पसमांदा उपस्थित थे. 1946 के चुनाव में भी जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कांफ्रेंस) के प्रत्याशी मुस्लिम लीग को कांटे की टक्कर देते हुए कोई एक सीट पर कामयाब हुए.
बंटवारे के बाद पसमांदा समाज को फिर से खड़ा किया
1947 में देश के बंटवारे के तूफान के बाद पसमांदा समाज को फिर से खड़ा करने के लिए वो जी-जान से जुट गए. मोमिन गैज़ेट का इलाहबाद और बिहार शरीफ से फिर से प्रकाशन करवाना सुनिश्चित किया.
मौलाना की गिरती हुई सेहत ने उनके अनथक मेहनत, दौरों को प्रभावित करना शुरू कर दिया था. जब वो इलाहाबाद के दौरे पर पहुंचे तो जिस्म में एक कदम चलने की भी ताकत नहीं बची थी. ऐसी हालत में भी वो यूपी प्रदेश जमीयतुल मोमिनीन के सम्मेलन की तैयारियों में लगे रहें.
इसी बीच 6 दिसंबर 1953 को रात 2 बजे के आस पास हृदय गति रुक जाने के कारण उनका देहांत हो गया.
आसिम बिहारी के संघर्ष और सक्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वो पैदा बिहार के नालंदा में हुए, आंदोलन की शुरुआत कोलकाता से की और उनकी मृत्यु उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुई.
(संदर्भ: बन्दा-ए-मोमिन का हाथ- प्रो० अहमद सज्जाद, 2011, रिसर्च एंड पब्लिकेशन डिवीज़न मरकज़-ए-अदब-व-साइंस, रांची)
(लेखक, अनुवादक, स्तंभकार, मीडिया पैनलिस्ट, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह लेख ThePrint से साभार लिया गया है