लेखिका: पायल

…तभी सखी को एहसास होता है कि लड़कियाँ लड़कों से कम थोड़े न हैं। अतः सखी ने अपनी ही योनि को हिंदी भाषा के तमाम तद्भव, तत्सम, समानार्थी शब्दों का जामा पहनाकर और विभिन्न उपमाओं से सुसज्जित कर के एक के बाद एक वाक्यों में प्रयोग करते हुए अपनी प्यारी सखी को भेंट कर दिया। और इस तरह सवर्ण नारीवाद की परिभाषा में नारी, नर-सी हो जाती है।

बिना आश्चर्य के, ‘#MeToo’ क्रांति के पश्चात बने माहौल ने फेमिनिज़्म का एक नया बाज़ार खड़ा कर दिया है, जहाँ आपके हर छोटे-बड़े स्क्रीन पर आप नारीवाद को खरीद रहे हैं। अब यह कोई पहेली नहीं है कि इस प्रोडक्ट को कौन परिभाषित कर रहा है। अगर आप सोच रहे हैं कि महिलाएँ ही यह तय कर रही हैं, तो आप उन उपभक्ताओं में से हैं जो ‘सेल-सेल-सेल’ के जाल में ठगे जा रहे हैं। भारत में नारीवाद की पैकेजिंग देखकर शायद आपको लगे कि यह ‘fat-free’ है, पर जब आप सामग्री पढ़ेंगे तो आपके ज्ञान चक्षुओं को गहरा आघात पहुँचेगा।

फेमिनिज़्म — एक ऐसी विचारधारा — जिसे सुनकर लगता है कि इसके केंद्र में महिलाएँ और उनके अधिकार होंगे। पर ज़रा धैर्य रखें। चार शॉट्स लगाइए, और जब आप उपभोक्ता बन ही चुके हैं, तो जागरूक ग्राहक क्यों न बनें? नारीवाद अर्थात फेमिनिज़्म हमारे भारत में कोई नया विचार नहीं है। दरअसल, ‘Umbrella ब्राह्मणवाद’ के अंतर्गत यह प्रोडक्ट गार्गी और लोपामुद्रा के उदाहरणों के साथ चिर-परिचित रूप में पहले से ही उपलब्ध है। तथापि, फेमिनिज़्म एक हिंदूवादी भारतीय विचारधारा भी है, जिसे मॉडर्न फेमिनिज़्म को कमजोर करने के लिए ब्रह्मबाण की तरह प्रयोग में लाया जाता है।

शायद यही कारण है कि जब-जब हम सवर्ण नारीवाद का पहला शॉट लगाते हैं, यह अपने लाभ के खाते में कुछ और मुनाफा जोड़ देता है। कमाल की बात यह है कि यहाँ उत्पादक और उपभोक्ता — दोनों ही पुरुष हैं। और साफ़ शब्दों में कहें तो ‘सवर्ण पुरुष’।

अब सोचिए एक ऐसी महिला के बारे में जो अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ती है, स्वतंत्र व्यक्तित्व में विश्वास रखती है और अपनी इच्छा पर किसी भी बाहरी दबाव को स्वीकार नहीं करती। ऐसी हर फेमिनिस्ट पर ब्राह्मणवाद या तो दुर्गा ‘माँ’ का टैग चिपकाता है या फिर काली ‘माँ’ का, जो क्रोध में अपने बच्चे को दंड देती है और अंततः करुणामयी दयालु माता सिद्ध होती है। बस थोड़ा-सा फर्क यह होता है कि ऐसी महिलाओं को ‘मदर गिल्ट’ भी झेलना पड़ता है। इस तरह सवर्ण नारीवाद के भीतर महिलाओं की समस्या का समाधान ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के दायरे में ही खोजा जाता है, ताकि जातिवाद की जड़ें और गहरी होती जाएँ।

भारत में ‘पावर रिलेशन’ की व्याख्या, जेंडर के सन्दर्भ में, तब तक अधूरी है जब तक इसे ‘Caste रिलेटिविटी’ के सिद्धांत पर न परखा जाए। दलित-बहुजन महिलाओं के सशक्तिकरण में सवर्ण महिलाओं का नारीवाद किस तरह अपनी नकारात्मक भूमिका अदा करता है, यह समझना ज़रूरी है। मान लीजिए सवर्ण महिलाओं का नारीवाद सर्वथा उपयुक्त है। तो अब एक और शॉट लगाते हैं। सवर्ण महिलाओं की सेक्स, फिल्म इंडस्ट्री, फैशन इंडस्ट्री और पोर्न इंडस्ट्री के प्रति उदारवादी विचारधारा, उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक तरीका हो सकता है क्योंकि जगजाहिर है कि ऊँची जाति और घराने की औरतों को घर की चौखट से बाहर कदम रखने की अनुमति तक नहीं दी जाती थी। पर्दा भी इन्हीं पर लागू होता था। इनके जिस्म की बनावट, इनके शांत व्यवहार — सब कुछ इनके परिवार और समाज के पुरुष तय करते थे।

इसके ठीक उलट, दलित-बहुजन-पसमांदा महिलाएँ पुरुषों की तरह ही घर के बाहर भी काम करती हैं और घर के भीतर भी क्या ऐसी महिलाओं के ‘मदर गिल्ट’ के बारे में कभी किसी सवर्ण नारीवाद ने अपनी व्यथा प्रकट की है? नहीं। क्योंकि जब सवर्ण महिलाएँ घर के चूल्हे-चौके से आज़ादी की माँग करती हैं, तब उनकी जगह उन्हीं के रसोई में काम करने वाली दलित-बहुजन महिलाएँ मज़बूरी में खड़ी होती हैं। यह कैसा आर्थिक सशक्तिकरण है जिसमें व्यवसाय चुनने की आज़ादी सभी महिलाओं को समान रूप से प्राप्त नहीं है? और ऐसी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार वही सशक्त सवर्ण महिलाएँ करती हैं। इसका उदाहरण ‘Four More Shots Please’ शो की कीर्ति कुल्हारी के एक हालिया इंटरव्यू में देखा जा सकता है, जहाँ वह बता रही हैं कि एक सेलिब्रिटी होने के बावजूद उनकी काम वाली बाई उनसे दो घंटे रोजाना काम करने का 10 हज़ार महीना वसूलती है। लेकिन क्या कोई व्यक्ति दिन के 8 घंटे काम करके 40 हज़ार रुपए कमाए, तो मुंबई जैसे शहर में यह बहुत अधिक है?

यहाँ कई बिंदु ध्यान देने योग्य हैं:

  1. दो घंटे में खाना बनाना, बर्तन धोना, घर की सफाई, कपड़ों की धुलाई — ये सारे शारीरिक रूप से थकाने वाले मेहनतकश काम हैं, जिन्हें कमतर नहीं आँका जा सकता।
  • अवकाश के बारे में कोई चर्चा नहीं। सामान्यतः घरेलू काम करने वाली बाई को अवकाश देने की परंपरा नहीं होती।
  • यह सोचकर कि ये ‘निचले दर्जे’ के काम हैं, उनके वेतन को कम से कम रखने की मानसिकता होती है, ताकि वे हमेशा ग़रीबी के स्तर पर ही बने रहें। जबकि सेलिब्रिटी वर्ग केवल स्क्रीन के सामने सज-धज कर खड़ा होकर खुद को बाकी समाज से अधिक खास समझता है।
  • सच तो यह है कि मुंबई जैसे शहर में, 60 घंटे काम करके 10 हज़ार वेतन बहुत ही कम है।

अधिकांश घरेलू कामकाजी महिलाएँ निचली जाति से होती हैं और सवर्ण महिलाएँ इनके माँगे गए जायज़ वेतन को ‘लूट’ कहकर उनकी बेइज्जती करती हैं। सवर्ण नारीवाद, नारीवाद की वह शाखा है जो शोषण के खिलाफ़ चुनौती नहीं देता, बल्कि सशक्त होकर खुद शोषक की भूमिका में आ जाता है। दुःख की बात है कि दलित महिलाओं के लिए पर्दा कोई मायने नहीं रखता, क्योंकि वे हर जाति के पुरुष के लिए उपभोग की वस्तु समझी जाती हैं।  1924 तक केरल के त्रावणकोर में अवर्ण महिलाओं पर लगाया गया ‘वक्ष कर’ अमानवीयता का महज़ एक उदाहरण है। Caste सिस्टम से सिर्फ़ यहाँ का बाज़ार ही नहीं, बल्कि बाहर की इंडस्ट्रीज़ — जैसे पोर्न इंडस्ट्री — भी लाभ उठाती हैं।

इसलिए जब फेमिनिज़्म के नाम पर सवर्ण महिलाएँ किसी पोर्न स्टार सेलिब्रिटी को अपना आदर्श चुनती हैं, तो वे दलित-बहुजन महिलाओं के साथ हो रहे शोषण में अनजाने ही भागीदार बन जाती हैं। सवर्ण महिलाएँ पढ़ी-लिखी होती हैं। उनके पास ऐसे बाज़ार से एग्ज़िट करने के संसाधन और विकल्प दोनों होते हैं। लेकिन इनका इस इंडस्ट्री को समर्थन देना, इसे और भी ताकतवर बनाता है। पुरुषों की ओर से ‘डिमांड’ तो बनी ही रहती है। सवाल है ‘सप्लाई’ का — और यह पूरा करता है वो समाज, जो सबसे ज्यादा कमजोर है। इसीलिए, ह्यूमन ट्रैफिकिंग के अधिकतर मामलों में दलित-आदिवासी लड़कियाँ फँसती हैं, जो इन इंडस्ट्रीज़ में काम करते-करते वेश्यावृत्ति या अन्य गैरकानूनी गतिविधियों में धकेल दी जाती हैं।

इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था में पूँजीवाद, सवर्ण नारीवाद के कंधे पर बंदूक रखकर बहुजन-पसमांदा महिलाओं का शिकार करता है। जब ये महिलाएँ अपनी आवाज़ उठाती हैं, तो इनकी ‘दलित-बहुजन’ पहचान को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

अब तीसरे शॉट की बारी।

यह तो निर्विवाद है कि महिलाएँ हर समाज में शोषित हैं, पर उनकी समस्याएँ एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। जिस तरह ‘ब्लैक फेमिनिज़्म’ में ‘oppression’ को लिंगभेद और रंगभेद के दो मापदंडों पर समझा जाता है, उसी तरह ‘दलित फेमिनिज़्म’ में जेंडर और जाति दोनों ही अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। ज्यादातर संसाधन सवर्ण समाज के पास होने के कारण, सवर्ण महिलाओं का सशक्तिकरण असल में ब्राह्मणवाद के पक्ष में काम करता है। महिलाओं को अगर आरक्षण मिलता है, तो उसका सीधा लाभ सवर्ण महिलाओं को ही जाता है। सवाल यह है कि क्या ये सवर्ण महिलाएँ दलित महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं?

ब्राह्मणवादी मीडिया सवर्ण महिलाओं की जीवनशैली, पहनावे, संबंधों को अपने मुख्य पृष्ठों पर दिखाता है, लेकिन दलित लड़कियों और महिलाओं के साथ होने वाले शोषण को या तो अनदेखा करता है या उसे ब्राह्मणवादी नजरिए से व्याख्यायित करता है। हाल ही में जेफ बेज़ोस की ‘ब्लू ओरिजिन स्पेस टूरिज़्म मिशन’ में छह महिलाओं को भेजा गया, जिसमें कैटी पेरी भी शामिल रहीं। इसे महिला सशक्तिकरण की तरह दिखाया गया, पर असल में ये महिलाएँ ‘स्पेस से जुड़े बाज़ार’ के सशक्तिकरण का प्रतीक थीं — न कि नारीशक्ति का।

हमें समझना चाहिए कि किसी इवेंट में औरतों को खड़ा कर देने मात्र से, औरतों के हक की बात पूरी नहीं हो जाती और अब आखिरी यानी चौथा शॉट, जो शायद भारतीय फेमिनिस्ट्स के लिए थोड़ा कड़वा हो। दरअसल, इनकी विचारधारा खोखली और हास्यास्पद है। सवर्ण नारीवाद खुद में ही एक समस्या है। भारत में फेमिनिज़्म को दिशा केवल दलित-बहुजन महिलाओं ने दी है और दे सकती हैं। इस काम की शुरुआत उन्होंने बहुत पहले ही कर दी थी — सावित्रीबाई फुले और उनकी मित्र फातिमा शेख के ज़रिए।

उन्हें न तो अवसर प्रदान किए गए, न ही विकल्प। उनके पीछे खड़े होकर पीठ थपथपाने वाला कोई समाज भी नहीं था। आज जब दलित-बहुजन-आदिवासी लड़कियाँ भारत का नाम रोशन कर रही हैं, तो हमें उनके उस संघर्ष को भी याद रखना चाहिए, जो उन्हें जातिगत भेदभाव के कारण झेलना पड़ा। उनमें से एक नाम है — हिमा दास।

पसमांदा समाज की महिलाएँ भी इसी संघर्ष का हिस्सा हैं, जिनकी धार्मिक पहचान भी उनके साथ होने वाले भेदभाव और शोषण में अपनी भूमिका निभाती है। ये चार शॉट लगाने के बाद जब भी Amazon Prime पर ‘Four More Shots Please’ की सीरीज दिखती है, तो ऐसा लगता है —“सवर्ण महिलाओं का फेमिनिज़्म बिस्तर पर शुरू होकर, बिस्तर पर ही दम तोड़ देता है।“ इस नारीवाद की चमक-धमक में हम यह भूल जाते हैं कि नारी की असली लड़ाई असमानता को खत्म करने, अपने अधिकारों की सुरक्षा और जीवन की हर संभावना में खुद को देखने की थी।

~ पायल

payal