~ अब्दुल्लाह मंसूर

नारीवादी आंदोलन ने यह सवाल उठाया कि बराबरी केवल अधिकारों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सोच, इच्छाओं और जीवन जीने के तरीक़ों से भी जुड़ी है। यह आंदोलन महिलाओं की स्वतंत्रता, शिक्षा, आत्मनिर्भरता और सम्मान के लिए शुरू हुआ था। लेकिन जैसे ही यह चेतना फैलने लगी, बाज़ार ने इसकी गहराई को पहचान लिया और इसे अपने फायदे के लिए ढाल लिया। धीरे-धीरे वह आंदोलन, जो असल में सामाजिक बदलाव का सपना था, एक ऐसे भ्रम में तब्दील हो गया जिसमें महिलाओं को यह तो लगा कि वे आगे बढ़ रही हैं, लेकिन वे असल में एक नए तरह की उपभोक्ता संस्कृति में फंस रही थीं।

1929 में न्यूयॉर्क की सड़कों पर ईस्टर परेड के दौरान कुछ महिलाओं को सिगरेट पीते हुए देखना उस दौर के लिए चौंकाने वाला था। इसे “टॉर्चेस ऑफ़ फ्रीडम” कहा गया और इसे महिला स्वतंत्रता की मिसाल बताया गया। पर इसके पीछे एक विज्ञापन रणनीति छिपी थी। यह सब एक तंबाकू कंपनी और जनसंपर्क विशेषज्ञ एडवर्ड बर्नेज़ का रचा गया आयोजन था। उन्होंने महिलाओं की आज़ादी की आकांक्षा को एक बाज़ारी उत्पाद से जोड़ दिया। सिगरेट, जो अब तक मर्दानगी का प्रतीक थी, अचानक महिलाओं की स्वतंत्रता का प्रतीक बना दी गई।

असल चाल यही थी—प्रतीक बदले गए, पर सत्ता का ढांचा वैसा ही रहा। महिलाओं को लगा कि वे पुरुषों के बराबर आ रही हैं, पर वे एक नए बाज़ार में फंस रही थीं, जहां उनकी स्वतंत्रता सिर्फ उपभोग की एक नई परिभाषा बन चुकी थी। पूंजीवाद ने नारीवादी आंदोलन की गहराई को सतह पर ले आया और उसे उत्पाद बेचने के औज़ार में बदल दिया। सिगरेट जो उनकी सेहत के लिए हानिकारक थी, उसे आत्म-अभिव्यक्ति का ज़रिया बना दिया गया। यह कोई सामाजिक जीत नहीं थी, बल्कि एक कंपनी की मुनाफे की जीत थी।

यह घटना हमें दिखाती है कि पूंजीवाद किस तरह हर प्रतिरोध को निगलता है और उसे मुनाफे में बदल देता है। महिलाओं ने जिन मूलभूत अधिकारों के लिए संघर्ष किया था, उन्हें एक ऐसे प्रतीक में बदल दिया गया जो उनके स्वास्थ्य और सोच को नुकसान पहुँचाता था। जिस आंदोलन का मक़सद था महिलाओं की बराबरी सुनिश्चित करना, वही आंदोलन अब सतही उपभोक्तावाद में तब्दील होता जा रहा था।

विज्ञापन केवल चीज़ें नहीं बेचता, वह भावनाएं, पहचान और विचार भी बेचता है। “You’ve come a long way, baby” जैसे नारे महिलाओं को यह भ्रम देते हैं कि उन्होंने कोई ऐतिहासिक लड़ाई जीत ली है, जबकि हक़ीक़त में वे बस एक ब्रांड की ग्राहक बन चुकी होती हैं। बाज़ार यह तय करता है कि हमें क्या चाहिए, और फिर वही चीज़ हमारे सामने आज़ादी के नाम पर पेश कर देता है। यह एक ऐसी मशीन है जो हमारी इच्छाओं को पैदा भी करती है और उन्हें बेचती भी है।

नारीवादी आंदोलन की कल्पना थी कि महिलाएं अपने जीवन के फ़ैसले खुद लें, अपनी पहचान खुद तय करें। लेकिन जब बाज़ार यह तय करने लगे कि एक महिला कैसी दिखे, क्या पहने, क्या खरीदे और किस तरह जीए—तो असल स्वतंत्रता का स्वरूप ही बदल जाता है। जब आंदोलन का नारा परफ़्यूम, टी-शर्ट और लिपस्टिक में ढल जाए, तो हमें सोचना चाहिए कि हम बदलाव का हिस्सा हैं या सिर्फ उस बदलाव का illusion बेचने वाले बाज़ार का हिस्सा।

यह सिर्फ नारीवाद के साथ नहीं हो रहा। आज एलजीबीटीक्यू+ समुदाय, आदिवासी और दलित पहचानें, पर्यावरण आंदोलन—सभी को बाजार ने अपने हिसाब से ढालना शुरू कर दिया है। प्राइड मंथ में कंपनियां इंद्रधनुषी उत्पाद बेचती हैं, और जब विवाद होता है तो फौरन पीछे हट जाती हैं। बाज़ार को विचारधारा में नहीं, लाभ में दिलचस्पी होती है। जब तक मुनाफ़ा है, तब तक समर्थन है। जैसे ही मुनाफ़ा खत्म, विचार भी खत्म।

“टॉर्चेस ऑफ़ फ्रीडम” का प्रचार इतना प्रभावी था कि उसके बाद महिलाओं में सिगरेट पीने की दर में तेज़ बढ़ोत्तरी हुई। लेकिन इससे जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं की अनदेखी की गई। फेफड़ों का कैंसर, दिल की बीमारियाँ और गर्भावस्था में होने वाले नुकसान को छिपा दिया गया। सच्चाई यह थी कि औरतों की सेहत से कहीं ज़्यादा ज़रूरी उन्हें एक “आज़ाद उपभोक्ता” के रूप में दिखाना था, क्योंकि वही पूंजीवाद के लिए फ़ायदेमंद था।

यहाँ हमें यह समझना होगा कि साहित्य, आंदोलन और विचार जहाँ हमें सोचने, सवाल उठाने और बदलाव का सपना देखने की शक्ति देते हैं, वहीं उपभोक्तावाद अक्सर हमें तैयार जवाब देता है—जिसमें कोई जगह नहीं होती असहमति या विकल्प की। धीरे-धीरे हम उन्हीं प्रतीकों से अपनी पहचान गढ़ते हैं जो बाज़ार ने तय किए हैं। हम वही पसंद करते हैं जो विज्ञापन दिखाता है, वही पहनते हैं, वही सोचते हैं। आंदोलन अब क्रांति के नारे नहीं रहे, बल्कि फैशन के ट्रेंड बन चुके हैं।

इसलिए ज़रूरी है कि हम हर उस चीज़ को लेकर सवाल उठाएँ जो स्वतंत्रता के नाम पर बेची जा रही है। क्या हम वाकई सोचने की आज़ादी रखते हैं, या सिर्फ चुनने का भ्रम? क्या विकल्प हमारे हैं, या हमें वही दिए जा रहे हैं जो किसी कंपनी के लिए लाभदायक हैं? असली आज़ादी का मतलब सिर्फ बाहर की बेड़ियाँ तोड़ना नहीं होता, बल्कि सोचने, असहमति जताने और ख़ुद को परिभाषित करने की आज़ादी भी होता है।

नारीवादी विचारधारा को बाज़ार की वस्तु बनने से रोकना होगा। हमें उसे फिर से सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक बराबरी की दिशा में केंद्रित करना होगा। बदलाव सिर्फ प्रतीकों से नहीं आता—बदलाव आता है जब समाज की सोच बदले, जब फैसलों में बराबरी हो, जब नेतृत्व में विविधता हो, और जब आवाज़ें खरीदी न जा सकें।

“टॉर्चेस ऑफ़ फ्रीडम” हमें यही सिखाती है कि हर चमकती चीज़ आज़ादी नहीं होती। हमें अपने प्रतीकों को चुनने से पहले उनके अर्थ को समझना होगा। आंदोलन तभी ज़िंदा रहते हैं जब वे जनता के दिल में होते हैं, और जैसे ही वे किसी ब्रांड के हाथ में चले जाते हैं, वे खोखले हो जाते हैं। आज़ादी की मशाल बाहर से नहीं जलाई जाती, वह भीतर से जलती है—अपने विवेक से, संघर्ष से, और सच से।