~ अब्दुल्लाह मंसूर
सुबह सुबह माँ की आवाज़ बेटे के कानो में पड़ती है।
“दीपक आ गए क्या? चुलाह बारना है, ज़रा आग ले के आओ।”
दीपक चुप चाप घर से बाहर निकल के श्मशान की और चला जाता है। जहाँ उसके पिता और भाई चिता जलाने का काम कर रहे होते हैं। वो एक चिता से आग ले के आता है ताकि घर के चूल्हे की आग जल सके। कितनी खूबसूरती से यहाँ इस बात को समझा दिया कि किसी के चिता की आग कुछ जातियों के पेट की आग बुझाने का काम करती है।
‘मसान’(2015) (श्मशान घाट) जितनी आपको दिखती है उसकी गहराई उससे ज़्यादा है। फ़िल्म में निर्देशक नीरज घेवन इशारों-इशारों में बहुत कुछ कह जाते हैं। फिल्म में कई कहानियां एक साथ चल रही होती हैं। बॉलीवुड के विशाल परिदृश्य में, जहां फॉर्मूलाबद्ध कथाएं अक्सर सिल्वर स्क्रीन पर हावी रहती हैं, मसान एक ताज़ा विसंगति के रूप में खड़ी है। यह फिल्म वाराणसी की भूलभुलैया जैसी गलियों को उजागर करती है, उन कहानियों को उजागर करती है जो बॉलीवुडिया रोमांटिक कहानी कहने की प्रवृत्ति को चुनौती देती हैं। मसान सामाजिक मानदंडों की एक मार्मिक खोज है, जो व्यक्तिगत संघर्षों और मानवीय भावनाओं के लचीले परंतु जटिल धागों से जुड़ी हुई है।
फिल्म की पहली कहानी, जिसमें दीपक (विक्की कौशल) बनारस का रहने वाला एक अछूत जाति का छोटा लड़का है। उसकी जाति के कारण वह गंगा के घाट पर काम करने के लिए मजबूर होता है जिसमें मृत शरीर को जलाना और क्रिया कर्म शामिल है। दीपक इस काम को पसंद नहीं करता है और इस काम से बाहर निकलना चाहता है। जिसमें उसके पिता भी सहयोग करने को तैयार हैं। इसी बीच उसकी मुलाकात उच्च जाति की लड़की शालु (श्वेता त्रिपाठी) से होती है। फिर धीरे धीरे इनमें प्यार हो जाता है। फिल्म में प्यार के इज़हार को बेहद खूबसूरती से बयाँ किया गया है। दीपक और शालू एक दूसरे से प्यार करते हैं पर अभी तक इज़हार नहीं किया है। बनारस के मेले में दीपक और शालू मिलते हैं पर उनके साथ उनके दोस्त हैं इसलिए वह बात नहीं कर पाते है। एक दूकान से दोनों ही गुब्बारे खरीदते हैं। शालू को जाता देख कर दीपक गुब्बारा हवा में छोड़ देता है। शालू उस गुब्बारे को देखती है और अपना भी गुब्बारा उसके साथ हवा में छोड़ देती है जिससे दीपक उसके दिल की बात समझ जाता है। इसी दौरान बैकग्राउंड में दुष्यंत कुमार की कविता पर आधारित वरुण ग्रोवर का लिखा गीत बज रहा होता है
तू भले रत्ती भर ना सुनती है / मैं तेरा नाम बुदबुदाता हूँ / तू किसी रेल सी गुज़रती है, / मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
शालू और दीपक का प्यार अभी परवान चढ़ ही रहा होता है कि दीपक को उसकी जाति का एहसास उसका एक दोस्त करा देता है। वह दीपक को समझाते हुए कहता है कि “ लड़की अपर कास्ट है दोस्त, ज्यादा सेंटी वेंटी मत होना”
शालू भी इस बात को जानती है की उसका परिवार कभी दीपक को स्वीकार नहीं करेगा इसलिए वह दीपक के साथ भाग के शादी करने को भी तैयार है। कहानी में नाटकीय मोड़ आता है और शालू की मौत हो जाती है और दीपक प्रेम की जगह दर्द में डूब जाता है।
दूसरी कहानी
शायद इस प्रेम सम्बन्ध को एक साल हो गए थे। लगातर फोन और फेसबुक पे बात करते करते प्रेमी युगल में एक सहमती बनी की अब हमें ‘ सेक्स ‘ कर लेना चाहिए। ये युगल एक होटल जाते हैं कि तभी पुलिस की रेड पड़ जाती है। पुलिस उन प्रेमी युगल को इतना प्रताड़ित करती है कि लड़का डर और अपमान से आत्महत्या कर लेता है। ये घटना वाराणसी की है पर वास्तविक नहीं बल्कि ‘मसान’ फिल्म की एक कहानी है लेकिन यू.पी. में जहाँ रोमियों स्क्वाड के नाम पर प्रेमी युगलों को प्रताड़ित किया जाता है। वहाँ इस घटना की सम्भावना पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता है। ये घटना किसी के साथ भी, कभी भी, कहीं भी हो सकती है।
फिल्म यहीं से शुरू होती है और ये बताती है की जब सरकार और प्रशासन लोगो की निजी ज़िन्दगी में हस्तक्षेप करने लगेगी तो स्थिति कितनी भयावय हो जाएगी। मसान में ये कहानी देवी (रिचा चड्डा) की है। फिल्म देवी और उनके साथी छात्र पीयूष के एक होटल में एक साथ होने के दृश्य से शुरू होती है. पुलिस द्वारा पकड़े जाने और पुलिस इंस्पेक्टर मिश्रा द्वारा वीडियो बना के देवी और उनके पिता को ब्लैकमेल किए जाने पर आधारित है। फिल्म में देवी के पिता विद्याधर पाठक (संजय मिश्रा) को इंस्पेक्टर मिश्रा डराता है और अपमानित करता है तो वो ग्लानी और क्षोभ से वशीभूत हो कर अपनी बेटी को पीटते हैं और पूछते हैं कि उसने ये गन्दा काम क्यों किया ? पर देवी को इसमें कुछ भी गन्दा नज़र नहीं आता। वो एक आज़ाद ख्याल की लड़की है। अगर उसको किसी बात का अफ़सोस है तो सिर्फ अपने प्रेमी पियूष की मौत का; जिसका अफ़सोस न तो देवी के पिता को है न इंस्पेक्टर मिश्रा को। ये लड़की भारत की उस नई पीढ़ी को दर्शाती है जिसका यौन स्वतंत्रता को लेकर अपना निजी दृष्टिकोण है जो भारत की परम्परावादी सोच से काफी अलग है।
देवी का किरदार भारत की उस घिनौनी मानसिकता को दिखता है; जहाँ बलात्कार या ‘सेक्स स्कैंडल’ होने पर बलात्कारी पुरुष की तुलना में उस महिला या बलत्कार पीड़िता को शर्मशार होना पड़ता है। फिल्म के एक दृश्य में देवी का बॉस देवी से कहता है “ सीधे-सीधे पूछते हैं देगी क्या ? बोल न , किसी से नहीं कहेंगे उसको भी तो दिया था”। ये सीधा सपाट संवाद पुरुषों की उस लिजलिजी नज़र को दिखता है जो स्त्री को सिर्फ एक शरीर समझती है। देवी का किरदार हमारे पुरुषवादी समाज से एक सवाल करता है कि आखिर जब पुरुष अपने बल पर सभी अंदरूनी और बाहरी सुख भोगने को स्वतंत्र है तो यह आज़ादी स्त्रियों को क्यों और किसलिए नहीं दी जाती? क्या इच्छाएं सिर्फ पुरुषों की ही गुलाम होती हैं, स्त्रियों की नहीं? फिल्म में देवी और उसके पिता के सम्बन्ध को बहुत अच्छे से दिखया गया है। जहाँ पिता अपनी बेटी से नाराज़ होने के बावजूद उसपे अपनी जान छिड़कता है और नहीं चाहता की उसकी बेटी उसको छोड़ के कहीं चली जाए ।
इस तरह निर्देशक नीरज घेवन फिल्म में दो मुख्य कहानियों के ज़रिये दो बेहद ज़रूरी सवाल उठाते है। कहानियां एक दुसरे से अलग होने के बावजूद आपस में जुडी हुई हैं। हम देखते हैं कि फिल्म के मुख्य किरदारों की ज़िंदगी में कुछ ना कुछ ऐसा है जो मर चुका है लेकिन अभी तक मसान (श्मशान घाट) पर नहीं पहुंचा है अर्थात उनको अब तक मोक्ष नहीं मिला है और वो तड़प रहे हैं। इन किरदारों की ज़िन्दगी में अन्दर से बाहर की ओर और बाहर से अन्दर की ओर एक सफ़र है जो लगातार चल रहा है। एक तरफ परम्परागत मूल्य हैं तो दूसरी तरफ युवा मन की आकांक्षा, जो इन दकियानुस परम्पराओं को तोड़ देना चाहती है। मसान के पात्र अतिरंजित कल्पना के ताने-बाने से नहीं गढ़े गए हैं; इसके बजाय, वे वास्तविक, भरोसेमंद हैं, जो उन लोगों को प्रतिबिंबित करते हैं जिनका हम अपने रोजमर्रा के जीवन में सामना करते हैं। फिल्म परंपरागत मापदंडों के हिसाब से नहीं चलती, अंत में सब कुछ सही हो जाएगा,सब सुकांत होगा । फिल्म इस धारणा को तोड़ती है और नई संभावना के लिए विकल्प छोड़ती है। इसकी वजह मसान के केंद्र में वरुण ग्रोवर की उत्कृष्टता से लिखी गई पटकथा है, वरुण ग्रोवर जीवन की सामान्य नश्वरता पर को पूरी पटकथा के केंद्र में रखते हैं जो एक सुंदर सिनेमाई अनुभव पेश करती है। यह फिल्म दर्शकों को पात्रों की सांसारिक लेकिन गहराई से गूंजने वाली वास्तविकताओं में डुबो देती है। दर्शकों को पात्रों के एक जुड़ाव सा महसूस करते हैं।
जैसे-जैसे कहानी सामने आती है, मसान बड़ी चतुराई से जाति, वर्ग और लिंग द्वारा आकार दिए गए मानदंडों को संबोधित करते हुए सामाजिक टिप्पणियों का ताना-बाना बुनती है। फिल्म में सत्ता को कई अर्थों में समझाया गया है जैसे एक पुलिसकर्मी का आम नागरिकों पर अधिकार, एक पिता का अपनी बेटी पर नियंत्रण, और जीवित लोगों पर मृत प्रियजन का स्थायी प्रभाव। फिल्म में जाति, पात्रों के जीवन की एक महत्वपूर्ण इकाई है, जो उनकी मित्रता, उनके द्वारा सुरक्षित की जाने वाली नौकरियों और समाज में उनकी स्थिति को निर्धारित करती है। जैसे देवी का चरित्र, एक ब्राह्मण महिला का है। उसके पिता पुलिसकर्मी से नरमी मांगने के लिए अपनी साझा जाति का लाभ उठाने का प्रयास करते हैं। दीपक और शालू की अंतरजातीय प्रेम कहानी भारत की आधुनिकता की पृष्ठभूमि में रची जाती है – वे फेसबुक पर जुड़ते हैं, फोन पर बातचीत करते हैं, और एक साथ बाइक की सवारी पर निकलते हैं। फिल्म दिखाती है कि कैसे बदलाव को अपनाना और आधुनिकता के फलों का उपयोग करना पात्रों को उनकी पूर्व निर्धारित स्थितियों के दायरे से परे जाने की अनुमति तो देता है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि आधुनिकता परम्परा से जीत चुकी है और भारत के सारे युवा प्रगतिशील हो गए हैं। दरसल आज भी अधिकांश युवा पीढ़ी उसी दकियानुस परम्परा को अपनी संस्कृति मान के जीती आ रही है जो शोषण और असमानता पर आधारित है। भले ही बाबा साहब के प्रयासों से छुआ-छुत में थोड़ी कमी आई है। जाति व्यवस्था की जड़ें आज भी भारतीय समाज में घहरी धसी हुई है। मसान फिल्म में एक जाति की सदियों से झेल रही अमानवीय स्थिति को दर्शाया गया है . ये बताने की कोशिश की गई है कि कैसे एक जाति को चिता जलने के अमानवीय काम में लगा दिया गया ?
इस कार्य में सवर्णों को आरक्षण नहीं चाहिए? फिल्म में जब शालू , दीपक से बार बार पूछती है की तुम कहाँ रहते हो तो दीपक झल्ला के बोलता है –
“जानना है की हम कहाँ रहते हैं। आओ चलो हम तुमको दिखाते हैं की हम कहाँ रहते हैं, हरीशपुर घाट पे हम रहते हैं, पैदा भी वहीं हुए थे, लकड़ी उठाना, मुर्दा जलाना यही काम है हमारा। हम क्या हमारे बाप-भाई, चाचा सभी यही काम करते हैं। कभी किसी को जलता हुआ देखी हो क्या तुम ? देखी हो क्या ? हम साला रोज़ यही देखते हैं, रोज़ यही करते हैं, सुबह से ले के शाम तक यही करते हैं . जब साला कोई जल जाता है न तो चमड़ा जल के कंकाल बच जाता है। कंकाल को बांस से मार के खोपड़ी तोड़ना पड़ता है। उसकी राख को गंगा जी में घुलाना पड़ता है । ये सब देख पाओगी क्या तुम ?”
सवाल बहुत वाजिब है। हमें ये सवाल खुद से और अपने जातिवादी समाज से पूछना चाहिए कि क्या ये सब देख पाओगे तुम ? जो सदियों से एक जाति देखती और भोगती आ रही है.
इसके बावजूद ‘मसान’ जाति/वर्ग मतभेदों पर जोर देने से बचती है, इसके बजाय वह निम्न मध्यम वर्ग के आर्थिक संघर्षों पर ध्यान केंद्रित करती है। प्रत्येक पात्र आर्थिक तंगी से बाहर निकलने का प्रयास करता है। दीपक वाराणसी में अपने जातिगत पेशे को छोड़ना चाहता है ताकि वह अधिक सम्मानजनक जीवन जी सके। एक ब्लैकमेलिंग पुलिस अधिकारी के जाल में फंसी देवी और उसके पिता खुद को ब्लैकमेलिंग से निकलने के लिए धन इकट्ठा करने का संघर्ष कर रहे हैं।
जो चीज़ मसान को बॉलीवुड की ढेर सारी प्रस्तुतियों/फिल्मों से अलग करती है, वह है यथार्थवाद के प्रति इसकी प्रतिबद्धता। वाराणसी, जिसे अक्सर मुख्यधारा के सिनेमा में रोमांटिक दिखाया जाता है, यह फिल्म इसको बिल्कुल अलग रोशनी में प्रस्तुत करती है। फिल्म अपनी सेटिंग को सौंदर्यपूर्ण बनाने के प्रलोभन से बचती है, इसके बजाय फिल्म सावधानीपूर्वक सिनेमैटोग्राफी का चयन करती है जो शहर के कच्चे, अनफ़िल्टर्ड सार को पकड़ती है। मसान छोटे शहर की रोमांटिक कॉमेडी के खिलाफ एक विद्रोह के रूप में खड़ी है जिसने हाल के वर्षों में जमीनी हकीकत के प्रामाणिक चित्रण को अपनाकर लोकप्रियता हासिल की है।
मसान फिल्म भी आशवादी है जो खुले प्रश्नचिह्न के साथ समाप्त होता है। यह दर्शकों को पात्रों की यात्रा पर विचार करने और आगे की संभावनाओं की कल्पना करने के लिए मजबूर करता है। फिल्म आसान उत्तर नहीं देती है यह जानबूझकर अस्पष्टता पैदा करती है जो दर्शकों में निरंतर जिज्ञासा की भावना को बढ़ावा देती है। आज जब फिल्म की सफलता का पैमाना 500-1000 करोड़ के आकड़े को पार करना मात्र है। वहाँ मसान शायद ही 50 करोड़ का आकड़ा भी कभी पार कर पाए। फिर भी, भावनात्मक स्तर पर गूंजने, दिलों को छूने और तुरंत आत्मनिरीक्षण करने की इसकी क्षमता एक कालजयी कृति के रूप में अपनी जगह पक्की कर लेती है। मसान एक फिल्म से कहीं अधिक बन गई है; यह एक शरणस्थली, एक सिनेमाई स्वर्ग है जब भी आपको सांसारिक चीजों से अवकाश की आवश्यकता महसूस हो आप मसान देख लें
अंत में, मसान पारंपरिक कहानी कहने से परे जाने की सिनेमा की शक्ति का एक प्रमाण है। सामाजिक मानदंडों, सूक्ष्म चरित्र-चित्रण और यथार्थवाद के प्रति प्रतिबद्धता की इसकी खोज एक सिनेमाई टेपेस्ट्री बनाती है जो दिल दहलाने वाली और आशावादी दोनों है। जैसे-जैसे पात्र वाराणसी में जीवन की भूलभुलैया को नेविगेट करते हैं, मसान दर्शकों को अपनी स्वयं की यात्राओं पर विचार करने के लिए आमंत्रित करता है, जिससे उन्हें एक प्रश्नचिह्न और जीवन की सामान्य जटिलताओं में पाई जाने वाली सुंदरता के लिए गहरी सराहना मिलती है।
लेखक, पसमांदा एक्टिविस्ट तथा पेशे से शिक्षक हैं। Youtube चैनल Pasmanda DEMOcracy के संचालक भी हैं।