लेखक: अब्दुल्लाह मंसूर
पुस्तक : इस्लाम का जन्म और विकास
लेखक: असग़र अली इंजीनियर
अनुवाद : नरेश नदीम
प्रकाशन : राजकमल, नई दिल्ली
पहला संस्करण : 2002
पृष्ठ : 192
मूल्य : 495₹
इस्लाम का इतिहास लिखना एक कठिन कार्य है क्यों कि मुसलमानों की आस्था अब ऐतिहासिक घटनाओं के साथ जुड़ चुकी है और इन अस्थाओं को केंद्र में रख कर कई संप्रदाय भी बन चुके हैं। कोई भी ऐसा तथ्य या तर्क जो उन की आस्था के विरुद्ध हो, इन संप्रदायों के अस्तित्व के लिए ख़तरा बन जाता है। ऐसे में असग़र अली इंजीनियर की किताब ‘इस्लाम का जन्म और विकास’ एक जटिल और मुश्किल काम था जिस को उन्होंने बख़ूबी अंजाम दिया। यह किताब ‘The Origin and Development of Islam’ के नाम से 1980 में प्रकाशित हुई थी। राजकमल प्रकाशन ने 2002 में नरेश ‘नदीम’ द्वारा इसका अनुवाद करवाया है। असग़र अली इंजीनियर लिखते हैं कि दुनिया भर के मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने आधुनिक समाज विज्ञान की रौशनी में आरंभिक इस्लाम के विश्लेषण के आवश्यक मगर कठिन कार्य को अनदेखा किया… अगर इस पुस्तक को इस दिशा में पहला कदम समझा गया तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूंगा। (1)
मशहूर पाकिस्तानी इतिहासकार मुबारक अली लिखते हैं कि इस्लाम से पहले की तारीख़ दरअसल अरब क़बीलों का इतिहास माना जाता था। इस में हर क़बीले की तारीख़ और इस के रस्म-ओ-रिवाज का बयान किया जाता था। जो व्यक्ति तारीख़ को महफ़ूज़ रखने और फिर इसे बयान करने का काम करते थे उन्हें रावी या अख़बारी कहा जाता था।
कुछ इतिहासकार इस्लाम और मुसलमान में फ़र्क़ करते हैं। इनके नजदीक इस्लामी इतिहास पैगंबर मोहम्मद (स० अ० व०) और खुलफ़ा-ए-राशिदीन (चार ख़लीफ़ा का इतिहास) का इतिहास ही आता है क्यों कि इन के बाद इस्लाम की रूह का ख़ात्मा हो गया और ऐसा इतिहास शुरू हुआ जिस का इस्लाम के आदर्शों से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस लिए यह मुस्लिम तारीख़ है न कि इस्लामी तारीख़। जब मौजूदा दौर में अरब नेशनलिज़्म, अरब राष्ट्रवाद उभरा तो तारीख़ को मज़हब से जुदा कर दिया गया। इस का नतीजा यह हुआ कि इस्लामी या मुसलमानों की तारीख़ के बजाय अब अरबों की तारीख़ के नाम से हम इतिहास देखने लगे। इस पुस्तक में हम अरब समाज के इतिहास के साथ-साथ इस्लाम के जन्म के इतिहास को देखेंगे विशेषत: उन आर्थिक कारणों की पड़ताल करेंगे जो अरब समाज में एक सामाजिक आंदोलन का वाहक बना पर कोई भी एक अकेला सिद्धांत और मॉडल या परिकल्पना, चाहे उस की वैज्ञानिक तथा सटीकता जितनी भी अधिक हो, किसी वस्तविकता के विभिन्न पक्षों की व्यापक ढंग से व्याख्या नहीं कर सकता- यही लेखक का पक्का विश्वास है। यहाँ इस लेख में हम इस पुस्तक की समीक्षा नहीं बल्कि पुस्तक का सारांश देखेंगे और समझेंगे कि यह पुस्तक क्यों महत्वपूर्ण है!
इस्लाम से पहले का अरब:
इस्लाम से पहले के अरब के बारे में जानना इस लिए आवश्यक है ताकि हम यह जान सकें कि इस क्षेत्र की क्या समस्या थी! वह कौन सी परिस्थितियां थी जो एक नए बदलाव की मांग कर रही थीं! हम यह जानते हैं कि इस्लाम का जन्म मक्का में हुआ था। यहाँ बद्दू कहे जाने वाले थोड़े से लोग रहते थे। यह पूरा इलाका बेहद निर्मम रेगिस्तान से घिरा हुआ है और यह क्षेत्र कृषि उत्पादन से पूरी तरह अज्ञात था। यहाँ कोई स्थाई चरागाहें भी नहीं थीं, बारिश भी बहुत कम होती थी। इन भौगोलिक कारणों ने एक ऐसी जीवनशैली को जन्म दिया जहाँ आपसी लड़ाई, धावा बोलना या लूटमार करना आम बात थी। असग़र अली इंजीनियर लिखते हैं “औद्योगिक समाज की तरह घुमक्कड़ समाज भी अपनी ख़ुद की संस्थाओं, आदतों और संस्कृति का विकास करता है। बद्दू सख़्त लोग होते हैं, जूझने और सहने की क्षमता उन का प्रमुख गुण है, जब कि अनुशासन तथा सत्ता के प्रति आदर-भाव का अभाव उनका प्रमुख दुर्गुण है।” यह अराजक स्थिति में रहने वाले लोग थे। बद्दुओं को अनुशासित करने में नवजात इस्लामी राज्य को बहुत कठिनाई आई। बाद में उन की यही प्रवृति गृहयुद्ध का कारण बनी। (2) यहाँ लेखक उन कारणों की भी पड़ताल करते हैं।
यह जानना दिलचस्प है कि बद्दुओं का कोई मज़हब नहीं था, वह लोग किसी देवी-देवता की पूजा या प्रार्थना नहीं करते थे। हालाँकि क़िस्मत को मानते थे और क़बीलाई सामूहिकता का पालन करते थे अर्थात अभी तक इन समाजों में व्यक्तिगत संपत्ति का जन्म नहीं हुआ था । एक क़बीलाई समाज में व्यक्तिवाद का कोई मूल्य नहीं होता और सामूहिकता का राज होता है इस लिए ऐसे समाज न तो महाकाव्यों की रचना करते हैं और इस लिए न ही इन के यहां कोई महानायक पैदा होते हैं।
(3) पैगंबर मोहम्मद (स०अ०व०) नगरवासी थे। नगरों के अपने रस्म-ओ-रिवाज और नीतिशात्र होते हैं। मक्का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केंद्र था और मूर्तिपूजक अरबों का एक धार्मिक केंद्र भी। अरबों की एक भारी संख्या व्यापार और अपने देवी-देवताओं की पूजा के लिए भी मक्का आती रहती थी। और इस तरह मक्का में धीरे – धीरे व्यक्तिकरण की प्रक्रिया शुरू होने लगी थी। क़बीलाई एकजुटता का महत्व कम हो रहा था। नए संपत्ति-सम्बन्धों के विकास के साथ वंश, छोटी पारिवारिक इकाईयों में टूट रहे थे अर्थात अब किसी की सम्पति में उन के बच्चों को छोड़ घनिष्ट सम्बन्धियों का कोई भाग नहीं होता था जब कि एक क़बीलाई समाज में संपत्ति का स्वामित्व सामूहिक होता था। इस नए आर्थिक सम्बन्धों से समाज में एक असंतोष और तनाव पैदा हो रहा था। (4) चूंकि मक्का में कृषि संभव न थी इस लिए यहाँ सामंतवाद या राजतंत्र जैसी संस्था का विकास न हो सका। इसलिए अरबी भाषा में राजा के लिए कोई शब्द नहीं है और शब्द मालिक (राजा) का व्यवहार विदेशी शासकों के लिए किया जाता था। यहाँ राज्य के राजनीतिक या प्रशासनिक कार्यों के लिए कोई कर लगाया या वसूला नहीं जाता था। (बिना कर के राज्य शासन की स्थापना संभव न थी) [5] राज्य जैसी किसी संस्था के अभाव में व्यवस्था बनाए रखना एक मुश्किल कार्य था और मक्का ताक़तवर व्यापारी किसी भी शक्तिशाली व्यक्ति के शासन के ख़िलाफ़ थे। यह लोग मक्का पर अल्पतंत्र (oligargy) का शासन चाहते थे। अगर मक्का के ताक़तवर सौदागरों ने पैग़म्बर मुहम्मद को स्वीकार किया होता तो उन्हें पैग़म्बर को निरपेक्ष शक्ति की स्थिति प्रदान करनी पड़ती। उनकी पैग़म्बरी को स्वीकार करने के बाद भला वह लोग उन के निर्देशों को कैसे इनकार कर पाते! अल फ़ित्नतुल कुबरा के लेखक डॉ ताहा हुसैन ने इस पहलू पर रौशनी डालते हुए कहा है: मैं भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि अगर सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर हमला किए बिना, कमज़ोर और ताक़तवर, अमीर और ग़रीब, ग़ुलाम और आक़ा का फ़र्क़ को ज्यों का त्यों छोड़ कर अगर पैग़म्बर मुहम्मद (स०अ०व०) ने सिर्फ़ अल्लाह की वहदानियत (ईश्वर एक है) का प्रचार किया होता, अगर उन्हों ने सूदखोरी पर पाबन्दी नहीं लगाई होती और उन्हों ने अमीरों से ज़कात (दौलत का एक हिस्सा ग़रीबों के लिए) नहीं लिया होता तो कुरै क़बीले का एक विशाल बहुमत पैग़म्बर मुहम्मद(स० अ० व०) के मज़हब को अपना लेता क्योंकि ज़्यादातर क़ुरैश अपने बुतों से जज़्बाती तौर से नहीं जुड़े थे (काबे के अधिकतर बुत मक्का के बाहर के खेतिहर समाज के बुत थे)। [6]
इस्लाम का जन्म:
पैग़म्बर मुहम्मद (स० अ० व०) ने जब अपने मज़हब का प्रचार शुरू किया तब मक्का में क़बीलाई सामूहिकता के विरोध में व्यक्तिवाद पैदा हो चुका था और समाज में टकराव को जन्म देने लगा था। इस तरह मक्का में इस्लाम के जन्म को सही-सही समझने के लिए हमें व्यापारिक समाज की इन विशेषताओं को भी ध्यान में रखना होगा। क़ुरान जिन सद्गुणों पर ज़ोर देता है, वह हैं उपभोग में बर्बादी से बचना, अपने कामकाज में ईमानदारी बरतना, (चोरी न करना) शराब और जुए की लत न पालना, विवाहेत्तर यौन संबंधों की लत से बचना और इस तरह परिवार नामक संस्था की पवित्रता को सुरक्षित रखना, लिखित व्यापारिक समझौते करना, ग़रीबों को ख़ैरात देना आदि। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह सद्गुण आमतौर पर व्यापारिक समुदाय में पाए जाते हैं तथा श्रमणवाद और घोर सांसारिकता के बीच एक मध्यमार्ग के समान है। (7) आरंभिक काल में इस्लामी आंदोलन समाज के कमज़ोर और पीड़ित व्यक्तियों की आकांक्षाओं को व्यक्त करता था। इसलिए शूरू में नव युवक, ग़ुलाम, यतीम, कमज़ोर वर्गों के बुज़ुर्ग इस के अनुयायी बने। एक ओर संपत्ति के संचय के कारण तथा दूसरी ओर जनता के बड़े भाग की ग़रीबी और बदहाली से मक्का में जो विस्फोटक स्थिति पैदा हुई थी उसे समानता के सिद्धांत का प्रचार करके ही दूर किया जा सकता था। यह इतिहास में कोई नई बात नहीं थी। (8) अब यह सवाल पैदा होता है कि समानता का विचार तो ईसाई धर्म में भी है तो अरब समाज मुस्लिम ही क्यों बना, ईसाई और यहूदी क्यों नहीं बना? इस का जवाब देते हुए असग़र अली इंजीनियर कहते हैं कि ईसाई और यहूदी एक बाहरी धर्म थे।
अरब आमतौर पर अपनी नस्ल के बारे में इतने मग़रूर थे कि आसानी से किसी विदेशी विचारधारा के आगे समर्पण नहीं करते थे, चाहे वह कितनी ही सुस्थापित क्यों न हो। उन का झुकाव अपने देसी धर्म की ओर अधिक था और इस्लाम उन के लिए ऐसा ही धर्म बनकर आया।
(9) इस्लाम अरब के व्यापारियों और योद्धाओं के शक्तिशाली और उदीयमान वर्ग की विचारधारा बन कर उभरा। अरब के सौदागर एक ऐसी राजसत्ता चाहते थे जो देश-विदेश में व्यापार के प्रसार की ज़मानत बन सके। बद्दू माल-ए-ग़नीमत (जंग में बचा या लूटा हुआ सामान) में अपना हिस्सा चाहते थे जब कि ईसाई धर्म संसार के त्याग पर ज़ोर देता है जब कि अरब संसार को जीतने में यक़ीन रखते थे। इस्लाम ने अरबों को एकता के सूत्र में बांधा। अरबों का अपना कोई धर्म, कोई ग्रंथ, कोई लिखित विधान नहीं था। इस्लाम ने उन्हें सामाजिक, आर्थिक, विभिन्न क्षेत्रों में लिखित नियम दिए। उस ने उन्हें एक फ़ौजदारी क़ानून तक दिया जो अनेक अर्थों में क़बीलाई समाज के फ़ौजदारी कानूनों से मेल खाता था। फिर यह सवाल पैदा होता है कि शुरूआत में मक्का के यही सौदागर इस्लाम के खिलाफ़ क्यों थे? असग़र अली इंजीनियर कहते हैं कि इसका कारण ढूँढने हमें दूर नहीं जाना होगा। परिवर्तन का विरोध और अज्ञात एवं न आज़माए हुए का डर सब से आम कारण है। फिर पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) मक्का के अमीरों और ताकतवरों की अथाह लालच पर ज़ोरदार हमले भी कर रहे थे। दुनिया में किसी भी स्थान के मुनाफ़ाखोरों की तरह वह लोग भी अपनी असीमित शोषण करने की स्वतंत्रता पर कोई अंकुश या अनुशासन स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। जब कि पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) को सतह के नीचे मौजूद असंतोष का अहसास हो गया था जो चिंताजनक बनता जा रहा था और कभी भी विस्फोटक स्थिति को जन्म दे सकता था। पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) एक न्यायपूर्ण समाज स्थापित कर के, उत्पीड़ितों को कुछ रियायत दे कर ऐसी किसी स्थिति को टालना चाहते थे। पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) बहुत अच्छी तरह समझ गए थे कि उन का धर्म अरबों को इस क़ाबिल बनाएगा कि वह संगठित हों और दूसरों पर हुकूमत कर सकें। (10)
पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) मक्का के व्यापारियों के ज़ुल्म से तंग आ कर मदीना हिजरत (पलायन) कर जाते हैं। मदीना में पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) का स्वागत होता है। ऐसा क्यों हुआ कि जो धर्म मक्का में प्रताड़ित था वही मदीना में इतना मक़बूल हो गया? असग़र अली इंजीनियर इस का कारण बताते हैं कि मदीने के अरब यहूदियों के वर्चस्व से दुःखी थे, जिन से वह संख्या बल में अधिक होने के बावजूद पीछा नहीं छुड़ा पा रहे थे। यह वर्चस्व अंशतः आर्थिक था क्योंकि व्यापार और खजूर के बाग़ान पर (यहूदियों का) नियंत्रण था। इस के अलावा यहूदी उन्हें एक ऐसे पैग़म्बर के आगमन से डराते रहते थे जिन की मदद से वह अरबों को उसी तरह नष्ट कर देंगे जैसे कभी आद और इरम क़ौमें तबाह कर दी गई थीं। इस तरह हम देखते हैं कि मक्का के ताक़तवर सौदागरों के विपरीत मदीना के अरब गृहस्थ वर्चस्व से सम्पन्न नहीं, दूसरों के वर्चस्व में थे और आपसी झगड़ों के कारण बंटे हुए थे। उन का मक्का के सौदागरों जैसा कोई निहित स्वार्थ नहीं था और इस लिए कोई कारण नहीं था कि वे पैग़म्बर मुहम्मद की मुख़ालिफ़त करें। इस के विपरीत उन्हों ने उन में एक ऐसे अरब अगुवा की छवि देखी जो पैग़म्बर के रूप अल्लाह की ओर से भेजे जाने का दावा करता था। (11) मुसलमानों और उनके पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) के साथ यहूदियों ने कभी सहयोग नहीं किया हालाँकि पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) ने यहूदियों से सहयोग की पूरी कोशिश की। असग़र अली इंजिनियर कहते हैं कि इस्राईल के बैत-उल-मुक़द्दस की ओर मुंह कर के नमाज़ पड़ना दरअसल यहूदी धर्म को इज़्ज़त देना था पर जब पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) को अहसास हो गया कि यहूदी उन्हें पैग़म्बर के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे और न ही मुसलमानों से सहयोग करेंगे तो उन्हों ने मन बदल लिया। (12)
औरतों की स्थिति:
जैसा कि हम जानते हैं कि अरब समाज एक क़बीलाई समाज था और ऐसे किसी समाज में स्त्रियों की एक अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति होती है। सामंती समाज में स्त्रियाँ पूरी तरह पराधीन होती हैं तथा पुरुष की सत्ता निविर्वाद होती है। जिस समाज में निजी संपत्ति की संस्था सुविकसित हो वहाँ स्त्रियों की इस्मत (इज़्ज़त) भारी महत्व ग्रहण कर लेती है। वास्तव में इस इस्मत के बिना किसी बच्चे के बाप का निश्चय नहीं किया जा सकता है। एक क़बीलाई ढाँचे में इस्मत का उतना महत्व नहीं था कि सम्पति का स्वामित्व कम-ओ-बेश सामूहिक होता है लेकिन मक्का और मदीना की स्थिति भिन्न थी। निजी संपत्ति की संस्था इन दोनों नगरों में सुविकसित थी। इसलिए पैग़म्बर मुहम्मद को ऐसे क़ानून बनाने पड़े जिस से बच्चों की वल्दियत (बाप के नाम का पता) पर शक की गुंजाइश न रहने दें। विवाहेत्तर यौन सम्बंध को बुत परस्ती या शिर्क (अल्लाह के अलावा किसी भी व्यक्ति या चीज़ की उपासना या पूजा) जितना ही बड़ा गुनाह माना गया क्यों कि औरतों की यौन स्वतन्त्रता संपत्ति के सुविकसित सम्बन्धों वाले समाज में नहीं चल सकती थी। (13) असग़र अली इंजीनियर कहते हैं कि पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) के बहुत से कारनामों की तभी व्याख्या की जा सकती है जब हम उन्हें एक नवजात राजसत्ता के प्रमुख और एक धार्मिक आंदोलन के वाहक के रूप में उनकी दोहरी भूमिका को समझ सकें। (14) कुछ एक इस्लामिक तौर-तरीकों और संस्थाओं को सही-सही तभी समझा जा सकता है जब हम इस बात को अपने ध्यान में रखें कि इस्लाम एक नगर केंद्रित धर्म था तथा पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) के काल में बद्दूओं के तौर-तरीकों तथा नगर वासियों की पसंदीदा जीवन शैली में टकराव था।
सत्ता संघर्ष
पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार को लेकर विवाद शुरू हो गया। यद्यपि पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) का कोई बेटा नहीं था और इस लिए भी यह विवाद और गहराता चला गया कि भिन्न सामाजिक ढांचा होने की वजह से अरब में ख़ानदानी हुकूमत का कोई रिवाज अपनाने की अवस्था अभी तक नहीं आई थी। अरबों का दृष्टिकोण अधिकतर क़बीलाई ही बना रहा इस लिए क़बीलाई पूर्वाग्रह भी सामने आ गए। (15) बनू हाशिम हज़रत अली (र० अ०) के साथ हो गए, कुरैश मुहाजिर (हिजरत करने वाले अर्थात एक जगह अबू बकर (र० अ०) के पीछे हो गए और अंसार ने साद बिन अबद (र० अ०) का समर्थन किया जो उनके नेता थे। विवाद बढ़ने पर हज़रत उमर (र० अ०) ने अबू बकर (र० अ०) का हाथ अपने हाथ में लेकर ख़िलाफ़त के पद के लिए उन्हें समर्थन देने का वादा किया और इस तरह अबू बकर (र० अ०) मुस्लिम समाज के पहले ख़लीफ़ा बने। इस मौक़े पर पैग़म्बर मुहम्मद (स० अ० व०) की कथित परंपरा को दोहराया गया “ख़लीफ़ा क़ुरैश में से होगा” इस तरह इस परम्परा के आधार पर नगर वासी अरबों ने रेगिस्तानी बद्दुओं पर वर्चस्व पाने की कोशिश की। यहाँ एक बात और समझ लें कि चुनाव के लिए ‘एक व्यक्ति एक मत’ का कोई सवाल ही नहीं था। वफ़ादारी जताने के लिए सिर्फ़ क़बीलों के सरदार और दूसरे अहम व्यक्ति ही भाग ले सकते थे। (16)
बद्दू क़बीलों ने नई ख़िलाफ़त के वर्चस्व के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया। इसे रिद्दा (धर्म त्याग) की जंग कहते हैं। यह पूरे अरब में फैली आम बग़ावत थी। बद्दू कभी किसी सत्ता के आगे झुकने को तैयार न थे। उन की अर्थव्यवस्था की दशाएँ किसी राज्य की माँग नहीं करती थीं। मदीना में जब विभिन्न समूहों के बीच सत्ता संघर्ष चल रहा था, पैग़म्बर की वफ़ात की खबर सुन कर एक के बाद एक बद्दू क़बीला इस्लाम छोड़ने लगा।
(17) ऐसा क्यों हुआ कि नबी (स०अ०व०) के वक्त में ईमान लाए हुए ये बद्दू इस्लाम छोड़ने लगे! असग़र अली इंजीनियर इसका जवाब तलाश करते हुए लिखते हैं कि इस्लाम के जन्म और उसकी पुख़्तगी के बाद बद्दुओं का सामना एक वास्तविक समस्या से हुआ। कम से कम उन के मामले में राजनीतिक परिवर्तन से आर्थिक स्थिति में परिवर्तन अवश्य आया। पहले वह रोज़ी रोटी के लिए दूसरे क़बीलों पर धावे (लूट-मार) करते थे। अब जबकि सभी अरब एकजुट थे और एक नई नैतिकता व कुछ नए सामाजिक और आर्थिक नियमों को लागू करने के लिए एक राजनीतिक ढाँचा स्थापित हो चुका था, दूसरे क़बीलों पर धावा बोलना असम्भव नहीं तो कठिन ज़रूर हो गया था। अब एक नगर-केंद्रित राज्य उन से ज़कात (नबी के बाद के काल में ज़कात राज्य द्वारा उसूला जाता था जो संचित संपत्ति का 2.5℅ होता था) माँग रहा था। यह निश्चित ही उनके लिए चिढ़ का कारण था। अगर कोई विकल्प नहीं मिलता तो वह ज़िंदा कैसे रहते! (18) इस समस्या के निपटारे के लिए अबू बकर ने अरब से बाहर की ओर प्रसार की नीति अपनाई। (अरब उपजाऊ भी नहीं था कि यहाँ आर्थिक संसाधन बढ़ाया जा सके) इस प्रसार (जिहाद) की नीति ने b के बद्दुओं के विद्रोह को दबाने में सहायता की। इस विद्रोह से यह पता चल गया कि बद्दुओं को अगर वश में में रखना है तो उन को एक बाहरी दुश्मन से भिड़ाना पड़ेगा। ऐसी लड़ाई में जिस से उन्हें आर्थिक संसाधन भी मिल सकें। (19) एक हद तक तो इस नीति से शांति आई पर साम्राज्य विस्तार से आई संपदा और समृद्धि ने सत्ता के लिए संघर्ष को और बढ़ा दिया।
पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) की मृत्यु के 30 साल के अंदर ही मुसलमान गृहयुद्ध में फंस गए। विदेशी विजय से मिलने वाली दौलत के कारण समाज में ज़बर्दस्त ताक़तें विकसित हो चुकी थीं और इस्लामी समाज के आदर्श जिसे चौथे ख़लीफ़ा हज़रत अली (र० अ०) लागू करना चाहते थे, उन की हत्या कारण बन गई। उन की हत्या के बाद उन के बेटे हसन (र० अ०) ने ख़िलाफ़त की बागडोर मुआविया (र० अ०) को सौंप दी। समझौते की शर्तों में एक शर्त यह थी कि मुआविया (र० अ०) अपनी मृत्यु के बाद अगले ख़लीफ़ा का चुनाव मुसलमानों पर छोड़ देगा और कोई उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं करेगा। मुआविया (र० अ०) ने इस समझौते का उल्लंघन किया और अपने जीवन में ही अपने बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया (इस तरह उन्होंने उमय्यद वंश की नींव डाल दी)। (20) मुआविया (र० अ०) की मृत्यु के बाद मूल समझौता पूरा हो गया कि अब एक नए ख़लीफ़ा का चुनाव किया जाना चाहिए था पर यज़ीद पहले से ख़लीफ़ा बन गया था। जब यज़ीद को पता चला कि हुसैन (र०अ०) कूफ़ा, इराक़ (जो बद्दू सैनिकों, युद्ध अपराधियों, ज़िम्मियों {वह व्यक्ति जो ईश्वर को एक न मानने वाला ग़ैर मुस्लिम नागरिक हो जो इस्लामी शासन की सुरक्षा में रहता हो और उस ने राजस्व देना स्वीकार कर लिया हो}, काश्तकारों का गढ़ था) के लोगों के बुलावे पर जा रहे हैं तो यज़ीद ने उन्हें रोकना चाहा पर हुसैन (र०अ०) ने दीनभाव से समर्पण करने की बजाए मृत्यु को तरजीह दी। (21) हुसैन (र०अ०) की शहादत ने शियाओं को एक जंगी नारा दिया ‘हुसैन का इंतकाम’ लेने का। यह नारा हर तरह क़बूल किया गया। उमय्यद हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए अब्बासियों ने (जो पैग़म्बर मोहम्मद {स० अ० व०} के चाचा अब्बास के वंशज थे) शियाओं से हाथ मिला लिया। (22) बग़ावत जब फूटी तो अरब कोई भेदभाव किए बिना काट डाले गए। यहाँ तक कि अरबों की फ़ारसी (ईरानी) बीवियों ने भी अपने शौहरों के क़त्ल में अपने क़ौम वालों का साथ दिया। इस घटना से इस बात का अंदाज़ा होता है कि इन फ़ारस (ईरान) वालों के दिलों में उन के अरब मालिकों के ख़िलाफ़ कितनी नफ़रत भरी हुई थी। ख़ैर इस बग़ावत के फलस्वरूप अब्दुल अब्बास अल-सफ़्फ़ा ख़लीफ़ा बन गया और सन् 749 ईस्वी में अब्बासी राज्य स्थापित हो गया। (23)
अंततः इस्लामिक आदर्शवाद मिथक
इस्लामी भाईचारा आदर्शवादियों का गढ़ा हुआ एक मिथक है। आरंभ से ही इस्लामी समाज वर्गों और श्रेणियों में बटाँ हुआ रहा है। इस में आक़ा और ग़ुलाम भी थे, संपत्तियुक्त और संपत्तिविहीन वर्ग भी था, अरब और ग़ैर-अरब भी थे। इन के बीच तीखी आपसी दुश्मनी पाई जाती थी। हमारे दौर में जो लोग इस्लामी भाईचारे की बात करते हैं वह लोग भी सामाजिक वास्तविकताओं से तथा समाज के विभिन्न भागों और वर्गों के बीच आपसी टकरावों से अनजान हैं।
इस लिए यह कहना शुद्ध आदर्शवाद होगा कि मुकम्मल भाईचारा सिर्फ़ धर्म के आधार पर क़ायम किया जा सकता है जो ऐसे भाईचारे को जारी रखने के लिए आवश्यक दशा तो हो सकता है परंतु पर्याप्त दशा नहीं हो सकती। जो लोग इस्लाम को उस के सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं और विभिन्न सामाजिक शक्तियों पर ध्यान देते हैं, आज वही दुनिया-ए-इस्लाम के सामने मौजूद स्थिति (चुनौती) का सही-सही विश्लेषण कर सकते हैं। (24) इस तरह यह बात बड़े कारगर तरीक़े से उन लोगों के तर्कों का खंडन करती है जो कहते हैं कि अगर राज्य की नीतियाँ इस्लाम के उसूलों पर आधारित है तो सब कुछ ठीक ठाक चलेगा तथा आम बुराइयों से मुक्त एक न्यायप्रिय समाज बन सकेगा। हम लोग जानते हैं कि जो लोग पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) के करीबी थे (जिन्हें सहाबी कहा जाता था) वे भी जब बदले हुए हालात में देर तक इस्लामी उसूलों पर अमल नहीं कर सके तो आज एक औद्योगिक समाज में उन आदर्शों पर कोई क्या अमल करेगा! इस्लामी राज्य की स्थापना की वकालत करने वालों ने आज तक इस का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। (25)
उपरोक्त सारांश से आप यह बात समझ गए होंगे कि इस्लाम अरब समाज की परिस्थितियों पर टिप्पणी करते हुए उनमें सुधार की बात करता है। कुछ बुद्धिजीवियों का यह भी मानना है कि इस्लाम का असल मक़सद ‘अल्लाह की ज़मीन पर अल्लाह का क़ानून लागू करना है’। इस के लिए वह पैग़म्बर मोहम्मद (स० अ० व०) की मिसाल देते है और कहते हैं कि जिस तरह उन्हों ने अरब में इस्लामी रियासत क़ायम की उसी तरह मुसलमानों को भी जहाँ वह रह रहे हों वहां इस्लामी रियासत क़ायम करनी चाहिए। इस किताब ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस्लाम राष्ट्रीयता की बुनियाद नहीं है और न ही मुसलमान एक क़ौम (राष्ट्र) है या उन्हें एक ही क़ौम होना चाहिए। जब मुसलमानों के प्रसिद्ध इस्लामी शरीयत के जानकार (फुक़हा) उनके बीच मौजूद थे, उनकी दो सल्तनतें, सल्तनत-ए-अब्बासिया बग़दाद (इराक़) और सल्तनत-ए-उमय्यद अंदलुस (स्पेन) के नाम से क़ायम हो चुकी थीं और कई सदियों तक क़ायम रहीं तब किसी ने नहीं कहा कि मुसलमानों की एक रियासत होनी चाहिए। आज 50 से ज़्यादा इस्लामिक मुल्क मिल कर एक रियासत नहीं कर रहे हैं। इस किताब की ख़ूबसूरती यह है कि बात यह बात भले ही इतिहास की कर रही है पर उत्तर वर्तमान का दे रही है। इस लिए 1981 में प्रकाशित यह किताब आज (2023) भी प्रासंगिक है।
लेखक: अब्दुल्लाह मंसूर
संदर्भ:
1: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-183
2: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-16
3: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-18
4: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-32
5: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-41
6: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-43
7: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-53
8: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-181
9: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-67
10: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-78-79
11: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज-84
12: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-95
13: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-113
14: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-100
15: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-119
16: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-121
17: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-123
18: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-127
19: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-127
20: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-158
21: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-160
22: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-163
23: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-165
24: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-183
25: इंजीनियर, असग़र अली, इस्लाम का जन्म और विकास, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण, 2018, नई दिल्ली, पेज नम्बर-146