Tag: Pasmanda

Zakat: A Pillar of Faith and Social Justice

Zakat, a key pillar of Islam, combines spiritual purification with social justice by mandating Muslims to donate 2.5% of their savings to the needy. The Quran emphasizes Zakat’s dual role—cleansing wealth and promoting societal welfare—highlighted in verses like Surah Al-Baqarah (2:110) and Surah At-Tawbah (9:103, 9:60). Zakat fosters equity by addressing poverty and social imbalances. Contrary to misconceptions, Zakat can be given to anyone in need, regardless of faith. In India, where Muslims face significant socio-economic challenges such as poverty and low education levels, Zakat is vital for community upliftment. However, inefficiencies in distribution and lack of transparency hinder its impact. Experts recommend creating a Central Zakat Fund, integrating it with waqf management, and using digital platforms to improve accountability and reach. Strengthening Zakat’s administration will enhance its potential to address poverty and promote justice in disadvantaged communities.

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पसमांदा आंदोलन का संक्षिप्त इतिहास

पसमांदा एक उर्दू शब्द है, जिसका अर्थ “जो पीछे रह गया” होता है। यह मुस्लिम धर्मावलंबी दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों के लिए प्रयोग किया जाता है। इसका इतिहास संत कबीर से जुड़ता है, जिन्होंने इस्लाम में जातिवाद का विरोध किया। बाद में, मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी ने मोमिन कॉन्फ्रेंस की स्थापना की, जो एक संगठित पसमांदा आंदोलन बना। बंगाल में हाजी शरीयतुल्लाह के फरायज़ी आंदोलन और पंजाब में अगरा सहूतरा के प्रयास भी महत्वपूर्ण रहे। महाराष्ट्र में शब्बीर अंसारी ने ओबीसी सूची में पसमांदा जातियों को शामिल कराने की लड़ाई लड़ी। असम में फैय्याजुद्दीन अहमद ने मछुआरा समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष किया। अली अनवर, डॉ. अय्यूब राईन और अन्य पसमांदा नेताओं ने सामाजिक न्याय के लिए काम किया। आज भी कई संगठन पसमांदा अधिकारों के लिए सक्रिय हैं, और डिजिटल मीडिया के माध्यम से यह विमर्श मुख्यधारा में आ रहा है।

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Why women education is important from Islamic point of view

The Prophet also designated specific times to address women’s educational needs. When women requested dedicated instruction, he allocated a weekly session, saying, “Gather on such-and-such a day at such-and-such a place” (Sahih Bukhari 101). This institutionalized women’s access to religious and practical knowledge, showing the importance Islam places on women’s education.Furthermore, the Prophet said, “The best among you are those who learn the Quran and teach it” (Sahih al-Bukhari). This praise extends to women, exemplified by Aisha (RA), the Prophet’s wife, who taught Islamic jurisprudence to male scholars. Another Hadith states, “Whoever follows a path in pursuit of knowledge, Allah will make easy for him a path to Paradise” (Sahih Muslim). The gender-neutral language in these Hadiths underscores equal access to education for both men and women. Throughout Islamic history, there have been many educated Muslim women who made significant contributions. Aisha, the wife of Prophet Muhammad, was renowned for her vast knowledge and taught many people about Islam. Fatima al-Fihri founded the University of Al-Karaouine in 859 CE, which UNESCO recognizes as the oldest continually-running university in the world. Other notable examples include Nafisa bint al-Hassan, a respected scholar who taught Imam Shafi’i, and Lubna of Cordoba, who was well-versed in mathematics and served as the sultan’s secretary.

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दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025: मतदाताओं की बदलती प्राथमिकताओं और उनके निर्णयों का विश्लेषण

पसमांदा मुस्लिम आमतौर पर आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं और सरकारी योजनाओं पर अधिक निर्भर रहते हैं। उच्च वर्ग के मुस्लिम अक्सर बेहतर आर्थिक स्थिति में होते हैं और उनकी प्राथमिकताएं अलग हो सकती हैं। पसमांदा मुस्लिम परिवार आर्थिक रूप से पिछड़े हैं और नौकरी की तलाश में हैं। पसमांदा मुस्लिम रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों पर अधिक ध्यान देते हैं।उच्च वर्ग के मुस्लिम अक्सर व्यापक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी विचार करते हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुंच की कमी एक बड़ी चुनौती है।कई पसमांदा मुस्लिम बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। उच्च शिक्षा में पसमांदा छात्रों का प्रतिशत कम है। मदरसों की आधुनिकीकरण की मांग भी है। बुनियादी सुविधाओं जैसे बिजली, पानी, सड़क आदि की कमी कई मुस्लिम बहुल इलाकों में है। शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम बस्तियों का विकास एक मुद्दा है।सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की कमी।सांप्रदायिक सद्भाव और सुरक्षा की मांग।भेदभाव और पूर्वाग्रह से मुक्ति। इसलिए, हालांकि कुछ नेता “मुस्लिम वोट बैंक” की बात करते हैं, वास्तव में ऐसा कोई एक राष्ट्रीय मुस्लिम वोट बैंक नहीं है। पसमांदा मुस्लिम मतदाता अलग-अलग तरह से सोचते हैं और अपनी मर्जी से वोट करते हैं। पसमांदा मुस्लिम अक्सर क्षेत्रीय और जाति-आधारित दलों को समर्थन देते हैं। उच्च वर्ग के मुस्लिम राष्ट्रीय दलों या मुख्यधारा के दलों को वोट देने की प्रवृत्ति रखते हैं।

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धर्म: शोषण का औज़ार या मुक्ति का माध्यम?

मसऊद आलम फलाही जैसे विचारकों ने धार्मिक ग्रंथों की नई व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने इस्लामिक शिक्षाओं से समानता और न्याय का संदेश खोजा और साबित किया कि धर्म दमनकारी नहीं बल्कि मुक्ति दिलाने वाला हो सकता है। दक्षिण अफ्रीका में अपार्थाइड विरोधी संघर्ष इसका एक उदाहरण है जहां आर्कबिशप डेसमंड टूटू ने ईसाई सिद्धांतों का उपयोग करते हुए नस्लीय समानता की वकालत की। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने भी बाइबिल की शिक्षाओं पर आधारित आंदोलन चलाया जिससे नस्लीय भेदभाव समाप्त हुआ।

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क्या है मुस्लिम तुष्टिकरण का असली सच? एक विचारोत्तेजक पड़ताल

इस नीति की चपेट में सबसे ज़्यादा वे लोग आये जिन्होंने कालांतर में किन्हीं कारणों से अपना मतांतरण करके मुस्लिम धर्म अपनाया था। जो कभी भी सत्ता और शासन के निकट नहीं रहे या रहने नहीं दिया गया, जिन्हें देशज पसमांदा मुस्लिम के नाम से जानते हैं, जिनकी ज़िन्दगियों में मतांतरण का कोई विशेष लाभ दृष्टिगोचर नहीं होता है और ये अपने पूर्ववर्ती सभ्यता, संस्कृति भाषा एवम् सामाजिक संरचनाओं से जुड़े हुए रहे।

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उर्दू अदब का जातिवादी चरित्र

चूँकि उर्दू अशराफ की भाषा रही है इसलिए अशराफ के सभ्यता और संस्कृति की प्रतिनिधि भी रही है। इस लेख में अशराफ के जातिवादी नज़रिये की अक्कासी करती हुई उर्दू अदब (साहित्य) से सम्बंधित कुछ प्रसिद्ध साहित्यकारों और उनकी रचना पर विवेचना करने की कोशिश की गई है।

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वो नक़्शे-कदम जो तारीख में कभी मद्धम नहीं पड़ते

अपने ज़िन्दगी के तमाम उतार-चढाव के बावजूद दलितों पिछड़ों और पसमांदा के संघर्ष से अपना नाता नही तोड़ा. पैसे-रुपयों की कमी या घरेलू हालात अथवा परेशानियाँ भी आप को अपने मकसद से डिगा न सकी. आप ने कांशीराम और उनकी तहरीक (आन्दोलन) को उस समय गले लगाया था जब बड़े से बड़ा सामाजिक कार्यकर्ता भी उधर मुंह करके खड़ा होने से घबराता था कि कहीं अछूत न समझ लिया जाऊं।

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मुस्लिम समाज को इस्लामी नारीवाद की आवश्यकता क्यों है

आज भी इस्लामी नारीवाद इसी मिशन पर काम कर रहा है। यह क्लासिकल इस्लामी इल्म और आधुनिक नारीवादी सोच दोनों से बातचीत करता है ताकि महिलाओं के हुकूक को बेहतर तरीके से समझा जा सके। सेक्युलर नारीवादी अक्सर इस्लाम को पितृसत्तात्मक मानते हुए उसकी आलोचना करते हैं, लेकिन इस्लामी नारीवादी मज़हब के अंदर रहकर उन तशरीहों को चुनौती देते हैं जो महिलाओं पर ज़ुल्म का सबब बनती हैं। इस्लामी नारीवाद का सबसे अहम पहलू यह है कि यह क़ुरआन के नैतिक उसूलों पर आधारित है। अस्मा बरलास और अमीना वदूद जैसे विद्वानों का मानना है कि क़ुरआन इंसाफ़, बराबरी और इंसानी इज़्ज़त-ओ-तक्रीम (सम्मान) को बढ़ावा देता है। उनका कहना है कि तौहीद (ईश्वर की एकता) का मतलब यह भी है कि किसी इंसान को दूसरे इंसान पर लिंग, नस्ल या जाति के आधार पर हुकूमत करने का हक नहीं है। पितृसत्ता, जो मर्दों को महिलाओं पर प्रभुत्व देती है, तौहीद के उसूल के खिलाफ जाती है।

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