लेखक: अब्दुल्लाह मंसूर

मऊ जिले में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) का इतिहास संघर्ष, विचारधारा और जनसरोकारों की मिसाल रहा है। विशेषकर 1970 से 1990 के दशक के बीच यह पार्टी मजदूरों, किसानों और बुनकरों के आंदोलनों में अग्रिम पंक्ति में रही। लेकिन इसकी जड़ें इससे भी पहले, 1950–60 के दशक में पड़ चुकी थीं, जब मऊ के मजदूर, खासकर बुनकर, अपने श्रम और जीवन स्थितियों को लेकर जागरूक हो रहे थे। यही वह समय था जब कम्युनिस्ट विचारधारा पहली बार मऊ की ज़मीन से जुड़ी। मऊ शहर ऐतिहासिक रूप से एक बुनकर बहुल इलाका रहा है, जहां की बड़ी आबादी मुस्लिम समुदाय से आती है। यहीं से पार्टी को सामाजिक आधार मिला—धार्मिक पहचान के पार जाकर वर्गीय मुद्दों पर संगठित करने की ताक़त। मुस्लिम बुनकरों, जिनकी आजीविका पारंपरिक हथकरघे और मेहनताना मजदूरी से जुड़ी थी, ने कम्युनिस्ट पार्टी की वर्गीय चेतना को एक अवसर के रूप में अपनाया। यह एक ऐसा दौर था जब धर्म के बजाय रोज़ी-रोटी, काम के अधिकार और सामाजिक न्याय की बातें कहीं अधिक ज़रूरी लगती थीं।

कम्युनिस्ट पार्टी ने मुसलमानों के बीच अपने प्रभाव को सिर्फ भाषणों से नहीं, बल्कि जमीनी कामों से बढ़ाया। बुनकरों की मज़दूरी, हथकरघा योजनाओं में पारदर्शिता, नहर और सड़कों के निर्माण में मजदूर हित, और स्थानीय प्रशासन में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन ऐसे मुद्दे थे, जिन्होंने CPI को मऊ के मुस्लिम समाज में स्वीकार्यता दिलाई। इस संदर्भ में मौलाना अब्दुल बाकी का नाम विशेष उल्लेख के योग्य है। वे मऊ शहर के एक प्रतिष्ठित अहले हदीस आलिम थे। उन्होंने न केवल धार्मिक क्षेत्र में सम्मान प्राप्त किया, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक चेतना के मामले में भी एक उदाहरण पेश किया।

अब्दुल बाकी का कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ाव एक साधारण राजनीतिक निर्णय नहीं था, बल्कि एक गहरे वैचारिक मंथन का परिणाम था। वे मऊ के उन चुनिंदा धार्मिक विद्वानों में से थे जो अहले हदीस विचारधारा से जुड़े होने के बावजूद समाज के ज़मीनी यथार्थ से मुँह नहीं मोड़ते थे। एक ओर उनके भीतर इस्लामी परंपरा, शरीअत और धार्मिक अनुशासन का गहरा आग्रह था, तो दूसरी ओर वे बुनकर समाज की गरीबी, शोषण और जातिगत अपमान को देखकर बेचैन रहते थे। यह द्वंद्व किसी भी धार्मिक व्यक्ति के लिए सरल नहीं होता—क्योंकि वामपंथी विचारधारा का अक्सर आरोप रहा है कि वह ईश्वर और संगठित धर्म के ख़िलाफ़ खड़ी होती है।

लेकिन अब्दुल बाकी ने इस विरोधाभास को सुलझाने का रास्ता वर्गीय पक्षधरता से निकाला। उन्होंने इसे ऐसे देखा कि धर्म का असली मक़सद इंसाफ है, और अगर एक राजनीतिक आंदोलन हाशिए पर खड़े मज़दूर, बुनकर और किसान को इंसाफ दिलाने के लिए संघर्ष कर रहा है, तो वह इस्लामी उसूलों से टकराता नहीं, बल्कि उसे पूरा करता है। इसी दृष्टिकोण ने उन्हें CPI से जोड़ दिया। उनका CPI में सक्रिय होना न सिर्फ़ एक व्यक्तिगत निर्णय था, बल्कि एक सांस्कृतिक बदलाव की शुरुआत भी था। मऊ के अन्य अहले हदीस युवाओं और धार्मिक मुस्लिम तबकों ने भी यह देखना शुरू किया कि वर्ग आधारित राजनीति धार्मिक पहचान के विरोध में नहीं, बल्कि उसकी ज़मीनी जरूरतों के पूरक हो सकती है। वे नारे जो पहले ‘काफ़िराना’ समझे जाते थे — जैसे “ज़मीन उसकी, जो जोते”, “इंकलाब ज़िंदाबाद” — अब मस्जिदों के इर्द-गिर्द सुनाई देने लगे।

Atulkumar Anjan

वहीं दूसरी ओर, CPI के वैचारिक और सांगठनिक विस्तार में अतुल कुमार अंजान जैसे करिश्माई नेता का योगदान भी उल्लेखनीय है। मूल रूप से गाजीपुर जिले से ताल्लुक रखने वाले अतुल कुमार अंजान न केवल एक तेज़तर्रार वक्ता, बल्कि किसानों, मजदूरों और छात्रों के सशक्त प्रतिनिधि के रूप में उभरे। मऊ और आसपास के क्षेत्रों में उनके आंदोलनों और भाषणों ने युवाओं में नई चेतना पैदा की। वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व में भी महत्वपूर्ण भूमिका में रहे और संसद से लेकर गाँव की पंचायत तक जनता के हकों की आवाज़ बने। उनके भाषणों में सामंती व्यवस्था, जातिवाद और धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध तीखा प्रतिरोध झलकता था, जिसने पूरे पूर्वांचल में CPI के जनाधार को गहराई दी।

मऊ में CPI की शाखाएं सिर्फ चुनावी राजनीति तक सीमित नहीं रहीं। इन्होंने गांवों की पंचायतों में पारदर्शिता, शिक्षा व्यवस्था में सुधार और प्रशासनिक जवाबदेही जैसे मुद्दों को भी उठाया। भ्रष्टाचार के खिलाफ कई बार सड़क से लेकर थाने और प्रशासनिक दफ़्तरों तक पार्टी के कार्यकर्ता धरने और प्रदर्शन करते रहे। 1974 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में CPI ने राज्य भर में कुल 16 सीटें जीतकर 25.57% वोट शेयर प्राप्त किया। मऊ जिले में भी CPI ने अपना प्रभाव दिखाया। 1980 के दशक में मोहम्मदाबाद विधानसभा क्षेत्र से CPI प्रत्याशी अक़बाल अहमद ने 1985 के चुनाव में 31,607 वोट प्राप्त किए और 16,204 वोटों के अंतर से जीत दर्ज की। 1991 के विधानसभा चुनाव में मऊ से CPI प्रत्याशी इम्तियाज़ अहमद को 27,597 वोट मिले, जो कुल 26% वोट शेयर था।

इसके अतिरिक्त, 1988 में मऊ के घोसी क्षेत्र में भूमि सुधार, नहर निर्माण और खाद्यान्न वितरण की पारदर्शिता के मुद्दे पर बड़े स्तर पर धरना-प्रदर्शन किया गया। उस आंदोलन की अगुवाई CPI नेता सलीमुद्दीन अंसारी और बुनकर नेता अनवर हुसैन ने की थी। लगभग 5,000 लोगों ने इसमें भाग लिया और यह मऊ के इतिहास में CPI की जमीनी पकड़ का बड़ा उदाहरण बना। 1992 में मऊ नगर पालिका के चुनाव में CPI ने दो वार्डों में जीत हासिल की और दो अन्य में दूसरा स्थान पाया। 1995 में मऊ के रतनपुरा ब्लॉक में दलित मजदूरों की मज़दूरी और भूमि अधिकारों को लेकर जो संघर्ष हुआ, उसमें CPI की भूमिका निर्णायक रही।

हालांकि आज कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव पहले जैसा नहीं रहा, लेकिन जो वैचारिक विरासत उसने छोड़ी है, वह आज भी मऊ की गलियों और कस्बों में देखी जा सकती है। मऊ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने मजदूरों, बुनकरों और किसानों को संगठित कर एक क्रांतिकारी चेतना की नींव रखी थी। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इस चेतना की संरचना में जाति की जटिलता को पार्टी लंबे समय तक नज़रअंदाज़ करती रही। कम्युनिस्ट आंदोलन ने वर्ग संघर्ष को तो पूरी गंभीरता से लिया, लेकिन जाति को “झूठी चेतना” या “बुर्जुआ विचलन” मानकर उसका विश्लेषण नहीं किया। यही चूक अंततः पार्टी की राजनीतिक और सामाजिक पकड़ के ढह जाने की सबसे बड़ी वजह बनी। भारत जैसे समाज में जाति, वर्ग से ऊपर की संरचना है। वर्गीय स्थिति कई बार बदल सकती है, लेकिन जातीय पहचान जन्म से तय होती है और मृत्यु तक पीछा नहीं छोड़ती। खेत में एक साथ हल चलाने वाले दो किसान भी एक-दूसरे से पानी नहीं पीते — यही जाति का असली प्रभाव है। इस यथार्थ को न समझना एक राजनीतिक अपराध की तरह था।

मऊ जैसे शहर में जहाँ बुनकर समुदाय जातिगत और धार्मिक दोनों रूपों में वंचित था, वहाँ CPI ने एक समय तक सामाजिक समरसता की मिसाल पेश की। लेकिन जैसे ही पहचान आधारित राजनीति उभरी, जातीय और धार्मिक चेतना ने वर्गीय एकता को तोड़ दिया। CPI इन परिवर्तनों को पहचानने में देर कर गई। जो समुदाय पार्टी के साथ थे, वे अब वहां चले गए जहाँ उनकी जाति और पहचान को सीधे संबोधित किया गया। यह केवल मऊ की कहानी नहीं, बल्कि पूरे भारत में वामपंथ की हार की कथा है — जहाँ जाति को वर्ग से नीचे समझा गया, और इसी वजह से वर्ग का आधार ही बिखर गया। यदि जातीय असमानता की जड़ों को स्वीकार नहीं किया गया, तो कोई भी वर्ग संघर्ष टिकाऊ नहीं बन सकता।